राजस्थान में कृषि उत्पादन

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राजस्थान में कृषि उत्पादन

राजस्थान में कृषि :-
राजस्थान का कुल क्षेत्रफल 3 लाख 42 हजार 2 सौ 39 वर्ग कि.मी. है। जो की देश का 10.41 प्रतिशत है। राजस्थान में देश का 11 प्रतिशत क्षेत्र कृषि योग्य भूमि है और राज्य में 50 प्रतिशत सकल सिंचित क्षेत्र है जबकि 30 प्रतिशत शुद्ध सिंचित क्षेत्र है।
राजस्थान का 60 प्रतिशत क्षेत्र मरूस्थल और 10 प्रतिशत क्षेत्र पर्वतीय है। अतः कृषि कार्य संपन्न नहीं हो पाता है और मरूस्थलीय भूमि सिंचाई के साधनों का अभाव पाया जाता है। अधिकांश खेती राज्य में वर्षा पर निर्भर होने के कारण राज्य में कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है।

रबी की फसल – अक्टूबर, नवम्बर व जनवरी -फरवरी
खरीफ की फसल – जून, जुलाई व सितम्बर-अक्टूबर
जायद की फसल मार्च- अपे्रल व जून-जुलाई
रवि को उनालु कहा जाता है।
खरीफ को स्यालु/सावणु कहा जाता है।
रवि -गेहूं जौ, चना, सरसो, मसूर, मटर, अलसी, तारामिरा, सूरजमुखी।
खरीफ – बाजरा, ज्वार, मूंगफली, कपास, मक्का, गन्ना, सोयाबीन, चांवल आदि।
जायद – खरबूजे, तरबूज ककडी

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पादप रोग

फसलों का प्रारूप ( Crop format ) :-
खाद्यान्न फसले (57 प्रतिशत)
नकदी/व्यापारिक फसले (43 प्रतिशत)
गेहूं, जो, ज्वार, मक्का, गन्ना, कपास, तम्बाकू, बाजरा, चावंल, दहलने तिलहन, सरसों, राई, मोड,मंग,अरहर उड्द तारामिरा, अरण्डी, मूंग
मसूर, चांवल, इत्यादि तिल, सोयाबीन, (जोजोबा)
नोट- राज्य में कृषि जाति का औसत आकार 3.96 हैक्टेयर है। जो देश में सर्वाधिक है। कुल क्षेत्र का 2/3 भाग (65 प्रतिशत) खरीफ के मौसम में बोया जाता है।

Rajastha Agriculture important fact
राज्य की कृषि योग्य सर्वाधिक व्यर्थ भूमि – जैसलमेर
कृषि में कार्यरत सर्वोच्च संस्था – भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद
सर्वाधिक कृषि क्षेत्रफल वाला जिला – बाड़मेर
सबसे कम कुल कृषि क्षेत्रफल वाला जिला – राजसमंद
राजस्थान का बाजरा सरसों धनिया जीरा मेथी ग्वार व मोठ के उत्पादन में भारत में प्रथम स्थान है
जैतून उत्पादन के मामले में राजस्थान देश में प्रथम स्थान पर है
खजूर एवं बेर अनुसंधान केंद्र बीकानेर
एशिया का सबसे बड़ा कृषि फार्म- जैतसर गंगानगर
चावल में मक्का का अनुसंधान केंद्र बांसवाड़ा
बाजरा इसबगोल अनुसंधान केंद्र मंडोर जोधपुर
राजस्थान का गौरव – बाजरा
राजस्थान का राजकोट लूणकरणसर बीकानेर
राजस्थान का नागपुर झालावाड़
सिंचाई एवं प्रबंध प्रशिक्षण संस्थान कोटा
बारानी भूमि – इस भूमि पर राजस्व विभाग द्वारा लगा नहीं लिया जाता है
लाल सुर्ख मेहंदी के लिए प्रसिद्ध गिलूंड राजसमंद
कृषि और मानव का सम्बन्ध सबसे पुराना और गहरा है। आदिमानव ने आजीविका के लिये कृषि की खोज की। आज कृषि सबसे विकसित उद्योग है जिस पर मानव जीवन आधारित है। भारत प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण देश है। यहाँ की जलवायु एवं मौसमी चक्र के अनुसार कृषि यहाँ का मुख्य व्यवसाय है, इसलिये भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है।
भारत की 80 प्रतिशत जनता गाँवों में बसती है। गाँव में आजीविका का प्रमुख साधन कृषि और पशुपालन है। यहाँ के किसान भले ही बहुत अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं, परन्तु कृषि में उनका ज्ञान बहुत उन्नत है। इसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने खेती के कई तरीके ईजाद किये। स्थान विशेष की मिट्टी, जलवायु, वर्षा की मात्रा एवं संसाधन के आधार पर कहाँ कौन सी फसलें करना उपयुक्त है, इसका विस्तृत ज्ञान किसानों के पास है। किसान को धरती पुत्र कहा जाता है, क्योंकि वह धरती की अनुकूलता के आधार पर खेती करते हैं। भारत की जलवायु एवं मौसम के अनुसार यहाँ पर दो प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं:-

खरीफ और रबी :-
खरीफ खरीफ की फसल ग्रीष्म ऋतु की फसल मानी जाती है, जिसकी बुआई जून-जुलाई के महीने में होती है। राजस्थान में खरीफ की मुख्य फसलें बाजरा, मोठ, मूँग, ग्वार, तिलहन आदि हैं।
रबी रबी की फसल सर्दी ऋतु की फसल है। रबी की फसल की बुआई अक्टूबर-नवम्बर के महीने में की जाती है। राजस्थान में रबी की मुख्य फसलें चना, सरसों, जौ, राई, गेहूँ, मूँगफली आदि हैं।
फसल की बुआई से लेकर कटाई तथा अनाज संग्रहण तक हमारे पूर्वजों ने कई तकनीकें बनाई हैं। आज भी किसान इन्हीं तकनीकों को अपनाते हुए खेती करते हैं। इस भाग में खेती के चरणों का क्रमानुसार विवरण लिखा गया है।
आज के आधुनिक युग में ट्रैक्टर से लेकर फर्टिलाइजर तक अनेक कृषि के उपकरण काम में लिये जा रहे हैं। परन्तु प्राचीलकाल से अब तक कृषि की जरूरत के अनुसार गाँवों में ग्राम स्तर पर निर्मित उपकरणों से ही खेती की जाती है। ये उपकरण आज भी उपयोगी हैं।

खेती के काम में आने वाले उपकरण :-
1) फावड़ा खेत की पाली (खड़ीन) बाँधने के काम में आता है।
2) गेंती खेत में मिट्टी खोदने के काम में आता है।
3) तगारी मिट्टी डालने के काम आता है।
4) कस्सी खेत में व फसल में लगी खरपतवार को काटने के काम में आती है।
5) दांतरा खेत में फसल को काटने के काम आता है। जैसे डोका, घास, कड़ब, रायड़ा, सरसों आदि काटने में।
6) दांतरी खेत में बाजरा तथा ज्वार के पौधों के सिरे (बाली) काटने के काम में आती है।
7) बई खेत में पाला, छोटी-बड़ी झाड़ियाँ, घास इकट्ठा करने व बाड़ा बनाने के काम में आती है।
8) हाहीगी खेत में कुतर (भुसा) भरने के काम में आती है।
9) चारसींगी/चौंकनी घास को इधर-उधर डालने एवं चारा (कुत्तर/भूसा) को भरने के काम में आता है।
10) हल खेत में बुआई के काम में आता है।
11) खेड़ का हल खेत में जुताई के काम में आता है।
12) थ्रेसर बाजरा, ज्वार, ग्वार, गेहूँ तथा सरसों आदि निकालने के काम में आता है।
13) तवी ट्रैक्टर के पीछे चलाकर खेत की जुताई की जाती है।
14) कल्टीवेटर ट्रैक्टर के पीछे चलाकर खेत में बुवाई की जाती है।
15) कुत्तर मशीन खेती में डोका, कड़ब, घास, सेवण, घामण, आदि को काटने के काम में आती है।
16) दंताली वर्मी कम्पोस्ट खाद में लगाने के काम में आता है। जिससे खाद को कीड़ा से बचाया जाता है।
17) कुल्हाड़ी (कवाड़ी) बड़ी झाड़ियों, कांटों को छाँगने या काटने के लिये।
18) गेंती कठोर मिट्टी /मुरड़ खोदने के लिये।
19) ओड़ी/ओड़ा पशुओं को चारा एवं कचरा भरने के लिये।

भूमि तैयार करना या खेत की तैयारी :-
वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने से पहले किसान अपने खेत को अगली फसल के लिये तैयार करते हैं। खेत की तैयारी इसलिये आवश्यक है, ताकि बारिश होते ही बीजारोपण प्रारम्भ किया जा सके। खेत की तैयारी के कुछ मुख्य चरण हैं जिनका वर्णन नीचे किया गया है
1) सूड करना सूड ज्यादातर वर्षा आधारित खेती में किया जाता है क्योंकि फसल कटने के बाद से अगले मानसून आने के बीच में किसान जमीन की जुताई भूक्षरण को रोकने की वजह से जुताई नहीं करता है अतः इस बीच प्राकृतिक रूप से खेत में उग आई बेकार की खरपतवार या झाड़ियों को खेत से निकालने की प्रक्रिया को सूड करना कहते हैं। इस प्रक्रिया में किसान द्वारा खेत में से आँकड़ी, झाड़ियाँ, बबूल तथा सीनियों के पौधे बारिश के आने से पहले काट लिये जाते हैं, जिससे खेत में हल चलाने में आसानी होती है और बीज भी अच्छी प्रकार से उगते हैं, क्योंकि बड़ी खरपतवार (काँटों) से हल चलाने वालों को परेशानी होती है और चोट लगने का डर रहता है। इस प्रकार से भूमि का सर्वोत्तम उपयोग हो जाता है। बड़ी-बड़ी झाड़ियों को खेत की चारदीवारी (मेंढ़) पर ले जाकर डाल दिया जाता है या फिर खड़ीन पर छाप दिया जाता है। इस काम को खेत में फसल की बुआई से पहले या बारिश का मौसम आने से पहले मई, जून तथा जुलाई के मौसम में करते हैं। इस काम को घर के बुजुर्गों को छोड़कर अन्य सभी सदस्य (महिला एवं पुरुष) मिलकर करते हैं। अगर सूड करने का काम नहीं करते हैं तो इससे लगभग 5 प्रतिशत अनाज की पैदावार (उपज) कम होती है, क्योंकि बेकार में उग आई खरपतवार खेत में उगने वाली फसल का स्थान तो घेरती ही है, साथ ही यह फसल को मिलने वाली नमी को भी सोख लेती है। किसान लोग यह बताते हैं कि इस प्रक्रिया का हम लोगों को सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि खेत में फसल की पैदावार अच्छी होती है तथा खेत भी समतल हो जाता है, जिससे सम्पूर्ण फसल को बराबर पानी मिलता है। बेकार की झाड़ियाँ तथा घास उनके पशुओं के लिये चारे के रूप में काम आती हैं। खरपतवार को जलाने से फसल में कीड़े भी नहीं लगते हैं, जिससे फसलों को बीमारियों से भी बचाया जाता है। सूड करने में निकाली गई झाड़ियाँ, खेत की कानाबंदी, आँकड़ा झोंपों की छत ईंधन के रूप में भी काम में आता है।

2) लागत सूड करने में मुख्यत :-
किसान का परिश्रम और कुछ औजार काम में आते हैं। इसमें काम में आने वाले औजार हैं – कस्सी कीमत 100 रुपए, गंडासी (कवाडी) कीमत 50 रुपए, भोला कीमत 200 रुपए, बई कीमत 125 रुपए और चौकनी कीमत 125 रुपए।

लाभ –
1) झाड़ियाँ हट जाने से फसल की अधिक उपज होती है।
2) ऊबड़-खाबड़ जमीन समतल हो जाती है।
3) कुछ किसान यह मानते हैं कि इससे मच्छर और कीड़े-मकोड़े भाग जाते हैं।
कानाबन्दी (कणाबन्दी) राजस्थान की तीक्ष्ण गर्म आँधियों में भूमि के जैविक कणों को सुदूर उड़ने से बचाने की तकनीक को कानाबंदी कहते हैं। कानाबंदी की प्रक्रिया खेत में इकट्ठा हुए सार्बनिक कणों को गर्मियों के समय हवा के द्वारा उड़कर दूर जाने से बचाती है। ये कण खाद का काम करते हैं और भूमि की उर्वरक क्षमता को बढ़ाते हैं। यह प्रक्रिया भूमि के कटाव को भी रोकने में मदद करती है। (अप्रैल से मई) सीनियो या काँटों को कूटकर खेत के बीच में डाल दिया जाता है, जिससे रेत खेत में रुकती है और उपजाऊ रेत और उड़कर आई खाद खेत मे ठहर सकती है। साथ ही काँटे और सीनिया खाद के रूप में जमीन की उर्वरकता बढ़ाते हैं। गर्मी के दिनों में लू तथा आँधी ज्यादा चलती है इसलिये इसका महत्त्व ज्यादा होता है और यह विशेष इन्हीं दिनों में की जाती है। इस काम को परिवार के सभी सदस्य मिलकर एक साथ करते हैं। इस प्रक्रिया को बारिश के दो या तीन महीने पहले करते हैं। इस प्रक्रिया में आँकड़ा, बबूल, कैर तथा झाड़ियों को काटकर इकट्ठा कर लिये जाते हैं, फिर इनको खेत की चारदीवारी पर एक कतार में लगाकर आधा फीट से एक फीट ऊँची मेड़ बना ली जाती है। ये दीवार उत्तर-दक्षिण दिशा में बनाई जाती है, क्योंकि सामान्यतः हवा पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर चलती है। आर्गेनिक पदार्थों के कण इसकी सीमा पर जाकर रुक जाते हैं और वह खेत के बाहर नहीं जा पाते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि छोटे कण जो कि खाद का काम करते हैं वह खेत के बाहर नहीं जा पाते और पैदावार अच्छी होती है। इससे खेत में आने वाली हवा की तीव्रता भी कम हो जाती है, जिससे हवा के चलने से मिट्टी भी क्षतिग्रस्त नहीं होती है और खेत का पानी भी खेत से बाहर नहीं जा पाता है। साथ ही मेड़ को भी मजबूती मिलती है।
लागत कानाबंदी में शारीरिक श्रम और कुछ कृषि औजारों की आवश्यकता होती है। एक हेक्टेयर जमीन पर कानाबंदी करने में झाड़ियों और मजदूरी पर तकरीबन 1800 रुपए खर्च होते हैं।

लाभ –
1) मिट्टी के जैविक कण हवा के साथ उड़ते नहीं हैं और भूमि की उर्वरक क्षमता बढ़ती है।
2) खेतों में हवा की गति कम हो जाती है और भू-क्षरण कम होता है।
3) कानाबंदी से मेड़ बन जाती है और वर्षाजल व्यर्थ नहीं बहता है।
मेड़बन्दी मेड़बन्दी भी जल और भूमि दोनों को संरक्षित करने का एक अच्छा तरीका है। मेड़बन्दी जल बहाव की गति को नियंत्रित करती है। यह जल ठहराव व भूजल को बढ़ाने में बहुत योगदान करती है। ये वर्षा काल के दौरान कटाव को भी रोकती है। भूमि के उपजाऊ तत्व भी न बहे और भूमि की उर्वरा शक्ति भी बनी रहे, इसका यह एक खास लाभ है। मेड़बन्दी का निर्माण किसान स्वयं अपने खाली समय में अपने परिवारजनों की मदद से कर लेता है। अतः किसी भी प्रकार का आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ता। मेड़बन्दी का कार्य भले ही देखने में छोटा लगता हो, लेकिन इनकी उपयोगिता बड़े जोहड़ या छोटे एनिकट से कम नहीं होती। मेड़बन्दी की मदद से पूरे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जल संरक्षण का कार्य किया जाये तो, अधिक उपयोगी होता है। इसके साथ ही ढलान क्षेत्रों में टिंच वाल बनाई जाती है, जो मेड़बन्दी की सहायक छोटी बहन की भूमिका अदा करती है। अध्ययनों के अनुसार इसके सामाजिक प्रभाव भी अच्छे रहे। फिर बहुत से गाँवों में एक साथ कई प्रकार के जल संरक्षण के कार्य किये गए। मेड़बन्दी सचमुच छोटी, किन्तु बहुत उपयोगी संरचना है।
मेड़बन्दी निर्माण विधि – ढलान पर आवश्यकतानुसार मेड़बन्दी बनाई जा सकती है। खेत के ढलान क्षेत्र में 2 से 4 फीट की ऊँचाई तथा 3-4 फीट की चौड़ाई की मेड़ जरूरत व खेत की लम्बाई के आधार पर बनाई जाये। इसकी सुरक्षा के लिये उपयोगी पौधे एवं घास भी लगाई जा सकती है।
मेड़बन्दी के लाभ वर्षा जल के अलावा मेड़बन्दी की सहायता से खेत में कुएँ अथवा नलकूप से सिंचाई करने में सुगमता रहती है। खेत में बारिश के पानी का पूरा लाभ मिलता है। मेड़बन्दी समय की बचत के साथ ही जल संरक्षण में भी सहायक रहती है। मेड़बन्दी का अन्य लाभ खेत का सीमांकन भी होता है। इससे आपसी वाद-विवाद कम होते हैं। आज ग्रामीण क्षेत्रों में इंच-इंच जमीन विवाद की जड़ मानी जाती है। इससे मुक्ति मिलेगी। कई बार किसान खेत के चारों तरफ पतली गहरी खाई भी खोदते हैं ऐसा करने से पशुधन से फसल को होने वाले नुकसान से भी बचाया जाता है।
झूर कुछ जंगली झाड़ियों और घास को एकत्र करके छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर बीज रोपने से पहले खेतों में फैला दिया जाता है। इसमें अधिकांशतः बाड़ और झोपों की छत में काम आई पुरानी झाड़ियों तथा केर की झाड़ियों को प्रयोग में लिया जाता है। ये टुकड़े हल चलाते समय मिट्टी से ढँक जाते हैं। जमीन में उपस्थित दीमक और अन्य कीटाणु इनका अपघटन कर इन्हें खाद में परिवर्तित कर देते हैं। यह प्रक्रिया वर्षा से पहले अप्रैल एवं मई में खेतों में की जाती है। झूर के लिये जैव पदार्थ जंगलों, चारागाहों या सूड से निकाली गई झाड़ियों से प्राप्त होता है। इन जैव पदार्थों को काटते हैं या भारी लकड़ी से पीटकर छोटे टुकड़ों में परिवर्तित करते हैं।
लागत एक हेक्टेयर जमीन पर झूर करने में 18 दिन का श्रम लगता है तथा इसकी लागत 1080 रुपए प्रति हेक्टेयर आती है।

लाभ –
1) जैविक पदार्थ मिलने से भूमि की उर्वरकता बढ़ती है।
2) उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।
3) झूर करने से भूमि वर्षाजल को अधिक अवशोषित कर सकती है और खेतों में नमी बनी रहती है।
4) जैव पदार्थ का बचा हुआ भाग पशुओं के खाने के काम आता है।
विशेष बिन्दू झूर की उपयोगिता वर्षा की मात्रा पर निर्भर करती है। यदि वर्षा की मात्रा कम है और खेत में अधिक जैव पदार्थ डाला गया है तो यह हानिकारक होता है। जैव पदार्थों के अपघटन से भूमि में अधिक गर्मी पैदा होती है, जो कि फसल को खराब कर सकती है। इस प्रकार सामान्य या अधिक वर्षा में झूर उपयोगी है अन्यथा कम वर्षा में यह नुकसानदायी हो सकता है।
बूआई बुआई अर्थात खेतों में बीज बोना। बीज की बुआई निम्न चरणों के अनुसार की जाती है।
बीज की तैयारी (गौजला) खेत में बोने के लिये बीजों को मुख्यतः घर पर ही तैयार करते हैं। बीजों का शुद्धिकरण इसलिये किया जाता है ताकि फसल में कीड़े या बीमारियाँ न लगे।
इस प्रक्रिया में सुबह के समय गोमूत्र को इकट्ठा करते हैं। 1 लीटर गोमूत्र में 10 किलो गेहूँ के बीज डाल दिये जाते हैं। फिर इन बीजों को आँगन में फैला दिया जाता है। इसके बाद इन बीजों के ऊपर राख छिड़क देते हैं और फिर ऊपर गोमूत्र (गौजला) छिड़क दिया जाता है। बीजों को गौजला में मिलाकर 20-25 मिनट तक इन्तजार करते है। बीजों को सूखने के लिये छोड़ देते हैं। इस प्रक्रिया को तीन से चार दिन तक सुबह के समय एक बार जरूर दोहराते हैं। इस प्रकार से शुद्ध किये हुए बीजों को तीन से चार दिन के अन्दर बो दिया जाता है। इस प्रक्रिया के अन्दर जरूरत से अधिक गौजला का प्रयोग नहीं करते हैं क्योंकि जरूरत से अधिक गौजला के इस्तेमाल से बीजों में बुआई से पहले ही अंकुरण शुरू हो जाता है। खेत में बोने के लिये केवल उन्हीं बीजों को चुनते हैं जो मोटे तथा भारी होते हैं और छोटे तथा हल्के बीजों को अलग कर दिया जाता है क्योंकि ये अच्छे फसल के लिये उपयुक्त नहीं होते हैं। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा फायदा यह है कि अगर बीजों को गौजला से शुद्ध किया जाता है तो फसल पर कीट पतंगे आक्रमण नहीं करते हैं, जिससे पेड़ भी पीला नहीं पड़ता है तथा फसल भी अच्छी होती है।

लागत –
इस प्रक्रिया में केवल श्रम की आवश्यकता होती है। गौजला घरेलू स्तर पर ही उपलब्ध होता है।

लाभ –
1) गौजला से उपचारित बीजों पर दीमक कभी भी आक्रमण नहीं करते।
2) पौधे पीले नहीं पड़ते हैं।
3) इससे पौष्टिक एवं बेहतर फसल प्राप्त होती है।
जुताई एवं बुवाई जुताई एक प्रकार से हल चलाने की प्रक्रिया है जो खेत के अन्दर की जाती है। इसे स्थानीय भाषा में खड़ाई करना भी कहते हैं। खेत की जुताई मुख्यतः पहली बारिश के बाद जून से जुलाई के मध्य की जाती है। परम्परागत तरीके से खेत की जुताई बैल, ऊँट या गधों के द्वारा ही की जाती रही है। परन्तु धीरे-धीरे वक्त के साथ अब इनका स्थान ट्रैक्टरों ने ले लिया है। आधुनिक युग में अब राजस्थान के कुछ गाँवों में ट्रैक्टरों से ही जुताई हो रही है। ऊँट, बैल या गधों के द्वारा खेत की जुताई करते समय किसान को इनके पीछे चलना पड़ता है और हल इन जानवरों की पीठ/कन्धों से बँधा होता है। किसान हल को ऊपर से नीचे की ओर बल लगाते हुए आगे बढ़ते हैं ताकि हल भूमि में अधिक-से-अधिक गहराई तक जा सके और नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाये। इस प्रकार से समस्त मिट्टी आपस में मिल जाती है, जिससे खेत की उर्वरक शक्ति भी बढ़ जाती है। इस प्रक्रिया में किसान एक हाथ से खेत की जुताई करता है और दूसरे हाथ से वह बीजों को जुती हुई मिट्टी में डालता रहता है। कभी-कभी इस काम को करने के लिये एक व्यक्ति खेत में हल चलाता है और दूसरा व्यक्ति बीजों को डालता जाता है। खेत को पहले बीच में से जोता जाता है फिर किनारों की तरफ। ऊँट के द्वारा खेत की जुताई करने में खेत की लम्बाई के समानान्तर खेत की जुताई करते हैं और फिर इसे अन्त में ‘U‘ (यू) की आकृति में जोता जाता है ताकि जमीन कहीं पर छूटने न पाये और सम्पूर्ण खेत की ठीक प्रकार से जुताई हो सके। खेत मे बुआई करते समय खेत में हल से जुताई ढलान के विपरीत दिशा (आड़ी) में की जाती है जिससे वर्षा का पानी सभी खूड में समान रूप से भरा रह सकें। इसी प्रकार चलने वाली हवाओं को भी ध्यान में रखकर बुआई की जाती है। खेत की जुताई करने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इससे खेत की मिट्टी में लोच (लचीलापन) के साथ उसकी उर्वरक शक्ति बढ़ जाती है और फसल की पैदावार ज्यादा होती है।

लागत –
एक हेक्टेयर जमीन को एक जोड़ी बैल या ऊँट की सहायता से एक दिन में जोता जा सकता है। ज्यादातर किसानों के पास स्वयं के ऊँट या बैल होते हैं, अन्यथा इन पशुओं को किराए पर भी लिया जा सकता है। एक जोड़ी बैल या ऊँट का किराया 170 रुपए प्रतिदिन है।
आज के आधुनिक समय में किसान ट्रैक्टर से खेत की जुताई को अधिक प्राथमिकता देने लगे हैं। ट्रैक्टर से जुताई में ‘तवी (डिस्क प्लाऊ)’ बहुत प्रचलित है। ट्रैक्टर और तावी से तीन साल में एक बार खेतों की गहरी जुताई की जाती है, इससे 12 इंच तक की गहराई में दबी मिट्टी नीचे से ऊपर आ जाती है और मिट्टी की जल अवशोषण क्षमता बढ़ जाती है। तवी के साथ दो तरीके प्रचलित हैं-
1) तीन वर्ष में एक बार तवी तथा बीच के दो वर्षों में ट्रैक्टर से कल्टी द्वारा सामान्य जुताई।
2) तीन वर्ष के बाद एक बार तवी तथा बीच के दो वर्षों में बैल या ऊँट से जुताई। कम श्रम एवं जल्दी जुताई करने की दृष्टि से आज के युग में किसान ट्रैक्टर की जुताई एवं तवी की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। इस प्रकार की तवी के फायदे एवं नुकसान निम्न प्रकार से हैं।

लाभ –
1) ऊँट से एक हेक्टेयर प्रतिदिन जुताई होती है, जबकि ट्रेक्टर से एक हेक्टेयर प्रति घंटे की दर से जुताई होती है।
2) ट्रैक्टर से जुताई की लागत 170 रुपए प्रति हेक्टेयर आती है और काम जल्दी हो जाता है।
3) तवी से जंगली पौधे मिट्टी में दब जाते हैं और बिना श्रम के झूर और सूड स्वयं ही हो जाता है।
4) ट्रैक्टर के कारण महिलाओं का कार्यभार कम हो जाता है।

नुकसान –
1) तवी द्वारा गहरी जुताई से उपयोगी सेवण घास, जंगली पौधों एवं झाड़ियों की जड़े नष्ट हो जाती हैं और उपयोगी सेवण घास जंगली पौधे कम हो जाते हैं।
2) प्राकृतिक रूप से उगने वाली खेजड़ी के पौधे कटकर नष्ट हो जाते हैं।
3) जंगली पौधे कम होने से कानाबंदी और झूर के लिये जैव पदार्थ कम हो जाते हैं।
4) किसानों को रासायनिक खाद पर अधिक आश्रित रहना पड़ता है, जैविक खाद कम मिल पाती है।
5) ट्रैक्टर की जुताई से स्थानीय पेड़-पौधे जैसे खेजड़ी, कैर आदि की जड़े नष्ट हो जाती हैं।
6) बीज की बुआई समान मात्रा में नहीं हो पाती है।
7) अकाल के समय सेवण घास से प्राप्त होने वाला चारा तथा देशी बेर की झाड़ियों से प्राप्त होने वाला चारा (पाला) एवं काटा (पाई) नहीं मिल पाता है अर्थात हमेशा के लिये खत्म भी हो सकता है।

भांज (दुबारा बीज बोना) :-
कम वर्षा या अन्य कारणों से कभी-कभी सारे बीज अंकुरित नहीं हो पाते हैं। ऐसी स्थिति में किसान दुबारा बीजों की बुआई करता है। अधिक से अधिक अंकुरित बीजों को बचाते हुए किसान बीच-बीच में बीज बोते हैं। इस प्रक्रिया को भांज कहते हैं। पहली बुआई के तीन से पाँच सप्ताह के बाद भांज किया जाता है। इसमें किसान पहले बोए गए बीजों की दो कतारों के बीच में हल चलाते हैं और बीज बोते हैं। इस प्रक्रिया को करने के लिये खेत में नमी होना जरूरी है।

लागत –
इस प्रक्रिया में 300 रुपए प्रति हेक्टेयर तक खर्च आता है।

लाभ –
इससे अधिक फसल प्राप्त की जा सकती है और होने वाले फसलीय नुकसान से बचा जा सकता है।
कटाई राजस्थान क्षेत्र की मुख्य फसल बाजरा है, इस प्रान्त में अधिकतर इसी फसल की कटाई होती है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले पौधे की बालियों को काट लिया जाता है, फिर उनसे दानों को अलग कर लिया जाता है। उनको सुरक्षित रख लिया जाता है, ताकि समय से पहले बारिश या आँधी चलने से फसल को कोई नुकसान न पहुँचे। इस क्षेत्र में खरीफ की फसल की कटाई कार्तिक माह में और रबी की फसल की कटाई बैसाख माह में की जाती है। फसल की कटाई करने के लिये दरांती नामक उपकरण का प्रयोग करते हैं। यह उपकरण लोहे का बना होता है और इसमें पीछे की तरफ लकड़ी का एक हत्था लगा होता है। फसल कटाई का कार्य परिवार के सभी सदस्य आपस में मिलकर करते हैं, जिसमें घर की महिलाओं की मुख्य भूमिका होती है। किसान बाली को काटने के बाद कपड़े में बाँधकर इसे ले जाते हैं। कटाई को स्थानीय भाषा में लावणी कहा जाता है। सीठ्ठियाँ तोड़कर अलग इकट्ठा की जाती है और डोका शेष बचता है। डोके को कुछ दिनों बाद काट लिया जाता है। सीठ्ठियों (बाजरा-ज्वार) को इकट्टा करके आगे का काम करने के लिये पड़ोसियों को बुलाया जाता है, इस प्रक्रिया को घूटनी कहते हैं। फसल की कटाई के बाद शेष बचे हिस्से को कडब (डोका) कहते हैं जो जानवरों के चारे के काम में आता है। कुछ फसलें जैसे ग्वार, तिल की फसल में सीठ्ठियाँ तथा तने को अलग-अलग करके नहीं काटा जाता है।

कटाई में निम्न फसलें काटी जाती हैं :-
कटाई/खूटणी
1) सीठ्ठियों (बाजरा-ज्वार) को इकट्ठा करना।
2) ग्वार उखाड़कर इकट्ठे करना।
3) मूँग, मोठ, की फली, तरबूज/मतीरा आदि इकट्ठा करना।
4) बाजरे के डोके को काटकर इकट्ठा करना।

लाह –
विभिन्न मौके जैसे निदान, कटाई, घर निर्माण आदि पर गाँवों के लोग परस्पर सहभागिता से एकजुट होकर काम करते हैं। इस प्रक्रिया को लाह कहते हैं। कटाई के समय किसान अपने पड़ोसियों व अन्य किसानों को कटाई में सहायता के लिये आमंत्रित करता है। सामान्यतया प्रत्येक परिवार से एक सदस्य इस काम में भाग लेता है। इस प्रकार सब परिवार एक दूसरे के खेत में फसल कटाई में मदद करते हैं। कभी-कभी तो लाह इतनी बड़ी होती है कि पड़ोसी गाँव के लोग भी उसमें सहभागिता (कटाई) हेतु भाग लेते हैं।

लागत –
यह एक सामुदायिक काम है जो पारस्परिक सहयोग से होत है। किसान गाँन क अन्य लोगों को मजदूरी नहीं देता है बल्कि वह सभी लोगों को अपनी हैसियत के मुताबिक अच्छा खाना, लाप्सी आदि खिलाता है।

लाभ –
1) खेत में लाह से काम जल्दी और

Rajasthan Geography Ke Question Answer

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