राजस्थान की चित्रकला

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राजस्थान की चित्रकला

राजस्थानी चित्रकला का परिचय :-
हर राज्य की अपनी चित्र शैली हैं, राजस्थान की चित्रकला का भारत में अपना अलग स्थान हैं. यह अन्य शैलियों से पूर्णतया भिन्न स्वरूप धारण किए हुए हैं. इस क्षेत्र की चित्रकला को विशिष्ट स्थान दिलाने में कई कलाविदों का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं. जिनमें आनन्दकटका कुमार स्वामी, खंडालवाला, ब्राउन आदि का नाम लिया जा सकता हैं. राजपूत चित्र शैली को ही राजस्थानी चित्र शैली का रूप माना जाता था, बाद में इसके स्वतंत्र रूप को स्वीकार किया गया था. इस शैली को स्वतंत्र अस्तित्व दिलाने में खंडालवाला का महत्वपूर्ण योगदान हैं, जिन्होंने अपनी रचना ठलीवस फ्राम राजस्थान के माध्यम से इसकी जानकारी अन्य विद्वानों तक
राजस्थानी चित्र शैली का जन्म राजपूत पेंटिंग से ही माना जाता हैं, बाद में 15 वी सदी में अपभ्रष के आगमन से इसके विकास में महत्वपूर्ण विकास हुआ |
इसी अवधि में राजस्थान की चित्रकला के कई महत्वपूर्ण चित्र तैयार किए गये. धीरे धीरे अलग अलग क्षेत्रों में उपशैलियाँ विकसित होने लगी, जिन्हें सम्पूर्ण रूप से राजपूती चित्रकला में नही रखा जा सकता हैं तथा भारत में एक नई चित्रकला शैली का जन्म हुआ, जिसका नाम राजस्थानी चित्रकला रखा गया था राजस्थान की चित्रकला कई उपभागों में विभाजित हैं क्षेत्र के अनुसार इसके अलग अलग नाम दिए गये हैं जो निम्न हैं |
मेवाड़ शैली, मारवाड़ शैली, बूंदी शैली, किशानगढ़ शैली, जयपुर शैली, अलवर शैली, कोटा शैली, बीकानेर शैली, नाथ द्वारा शैली इसके अतिरिक्त दो अन्य चित्र शैलियों को भी इसमें गिना जाता हैं, जो आमेर उपशैली तथा उणियारा उपशैली हैं किशनगढ़ की बणी ढणी चित्र शैली को भारत के बाहर दुनियां भर में विशेष ख्याति प्राप्त हैं |

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राजस्थान की चित्रकला शैली की विशेषताएँ :-
राजस्थान में चित्रकला की शुरूआत राणा कुम्भा के शासनकाल से हुई। राजस्थान का प्रथम चित्रित ग्रंथ “श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्ण“ हैं। जिसकी रचना 1261 ई़ में मेवाड़ के तेजसिंह के शासन काल में हुई। राजस्थान की चित्रकला पर आनन्द कुमार स्वामी ने “राजपुत पेटिंग“ नामक पुस्तक में प्रथम बार प्रकाश डाला व राजस्थानी चित्रकला का सर्वप्रथम वैज्ञानिक विभाजन भी 1916 में किया। राजस्थान की आधुनिक चित्रकला की शुरूआत करने का श्रेय कुन्दनलाल मिस्त्री को जाता हैं। राजस्थान में भित्ति चित्रों को चिरकाल तक जीवित रहने के लिए एक आलेखन पद्वति हैं। जिसे अरायश या आला-गीला पद्वति कहते हैं। जिसे शेखावाटी में पणा कहते हैं। राजस्थान का शेखावाटी क्षैत्र व बूंदी क्षैत्र भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्व हैं तथा आपन आर्ट गैलेरी के लिए शेखावाटी क्षैत्र प्रसिद्व हैं।
राजस्थान की चित्र शैली को चार स्कूलों में बांटा जाता हे – मेवाड़ शैली ,मारवाड़ शैली ,ढूँढाड़ शैली ,एंव हाड़ौती शैली सभी शैलियों में राधाकृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया गया हे | राग रागिनी ,नायक नायिका ,प्रेम रस ,श्रंगार ,युद्ध आदि हम यहां कुछ प्रमुख शैलियों पर प्रकाश डालेंगे |

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मेवाड़ चित्र शैली :-
यह राजस्थान की प्राचीनतम चित्र शैली है।
1261 में मेवाड़ के महाराजा तेजसिंह के काल में रचित श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी इस शैली का प्रथम चित्रित ग्रन्थ है।
मेवाड़ चित्र शैली का वास्तविक विकास महाराजा अमर सिंह के काल में सर्वाधिक हुआ।
महाराजा अमर सिंह के काल में गीत गोविन्द, रागमाला, भागवत, रामायण, महाभारत इत्यादि धार्मिक ग्रन्थों के कथानकों पर चित्र बने थे।
मेवाड़ चित्र शैली का स्वर्ण युग महाराजा जगत सिंह के काल को माना जाता है।
मेवाड़ चित्र शैली मे सर्वाधिक लाल एवं काले रंगों का प्रयोग हुआ है।
मेवाड़ चित्र शैली में सर्वाधिक कदम्ब के वृक्षों का चित्रण हुआ है।
मेवाड़ चित्र शैली में पंचतन्त्र के कथानकों पर जो चित्र बने है उन्हीं मे से एक चित्र के दो नायकों का नाम कलीला-दमना है।
मेवाड़ चित्र शैली में सर्वाधिक श्रीकृष्ण की लीलाओं के चित्र बने है।

मारवाड़ चित्र शैली :-
687 में शिवनाथ द्वारा बनायी गयी धातु की मूर्ति जो वर्तमान पिण्डवाड़ा ( सिरोही ) मे है इस चित्र शैली का मूल आधार है।
मारवाड़ चित्र शैली में सर्वाधिक श्रृंगार रत्न प्रधान चित्र बने है।
मारवाड़ चित्र शैली में सर्वाधिक लाल एवं पीले रंगों का प्रयोग हुआ है।
मारवाड़ चित्र शैली मे सर्वाधिक आम के वृक्षों का चित्रांकन हुआ है।
मारवाड़ चित्र शैली के नायक एवं नायिकाओं को गठीले कद-काठी के चित्रांकित किया गया है।
मारवाड़ चित्र शैली में राग-रागिनी, ढोला-मारू तथा धार्मिक ग्रन्थों कथानकों पर चित्र बने है।
राव मालदेव के काल में मारवाड़ चित्र शैली पर मुगल शैली का प्रभाव पड़ा था।
मुगल शैली से प्रभावित मारवाड़ चित्र शैली जोधपुर चित्र शैली कहलायी।
1623 में वीरजी नामक चित्रकार द्वारा बनाया गया रागमाला का चित्र इस शैली का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है।

जोधपुर चित्र शैली :-
जोधपुर चित्र शैली को महाराजा सूर सिंह महाराजा जसवन्त सिंह, महाराजा अजीत सिंह तथा महाराजा अभय सिंह ने संरक्षण दिया था।
महाराजा अभय सिंह के काल में जोधपुर शैली का सर्वाधिक विकास हुआ।

ढूॅंढाड़ चित्र शैली :-
जयपुर तथा उसके आस पास के क्षेत्रों में विकसित ढूॅंढाड़ चित्र शैली में लाल, पीले, हरे एवं सुनहरी रंगों को प्रधानता दी गई है।
ढूॅंढाड़ चित्र शैली में चॉंदी तथा मोतियों का भी प्रयोग किया गया।
ढूॅंढाड़ चित्र शैली में धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त लोक संस्कृति के ग्रन्थों पर भी चित्र बने है।
ढूॅंढाड़ चित्र शैली का वह स्वरूप जिस पर मुगल शैली का प्रभाव पड़ा वह आमेर चित्र शैली कहलायी।
राव भारमल के काल से आमेर चित्र शैली का प्रारम्भ माना जाता है।
महाराजा मानसिंह के काल में आमेर चित्र शैली का वास्तविक विकास हुआ।
सवाई प्रतापसिंह का काल आमेर चित्र शैली का स्वर्ण युग माना जाता है।
आमेर चित्र शैली में मोर, हाथी, पपीहा के साथ-साथ पीपल एवं बड़ के पेड़ों का भी चित्रांकित किया गया।

किशनगढ़ चित्र शैली :-
राजस्थान की राज्य प्रतिनिधि चित्र शैली मानी जाती है।
किशनगढ़ के महाराजा सावन्त सिंह का काल इस चित्र शैली का स्वर्णयुग माना जाता है। जो इतिहास में नागरीदास के नाम से प्रसिद्व हुए है।
नागरीदास ने अपनी प्रेयसी बणी-ठणी की स्मृति में अनेकों चित्र बनवाये थे।
बणी-ठणी का प्रथम चित्र मोर ध्वज निहाल चन्द के द्वारा बनाया गया था।
बणी-ठणी को राजस्थान की मोनालिसा कहा जाता है।
इस शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ0 फैययाज अली एवं डॉ0 एरिक डिकिन्सन को दिया जाता है।
इस शैली में सर्वाधिक नारियल का वृक्ष चित्रांकित किया गया है।
इस चित्र शैली में किशनगढ़ का स्थानीय गोदाला तालाब भी चित्रांकित किया गया है।

बूॅंदी चित्र शैली :-
हाड़ौती की सबसे प्राचीन चित्र शैली है।
बूॅंदी चित्र शैली में सर्वाधिक पशु-पक्षी एवं पेड़ों के चित्र बने है।
पशु-पक्षियों को सर्वाधिक महत्व इसी चित्र शैली में दिया गया है।
बूॅंदी चित्र शैली में सर्वाधिक धार्मिक कथानकों पर चित्र बने है।
बूॅंदी चित्र शैली में सर्वाधिक चम्पा के वृक्षों का चित्रांकित किया गया है।
बूॅंदी चित्र शैली में लाल पीले एवं हरे रंगों को महत्व दिया गया है।
राव सुर्जन सिंह हाड़ा के काल में बूॅंदी चित्र शैली का सर्वाधिक विकास हुआ।
महाराव उम्मेद सिंह के काल में बना चित्रशाला इस शैली का सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है।
बूॅंदी चित्र शैली से ही कोटा चित्र शैली का उद्धभव हुआ है।

नाथद्वारा चित्र शैली :-
1672 में महाराणा राजसिंह के द्वारा राजसमन्द के नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के मन्दिर की स्थापना के साथ ही नाथद्वारा शैली का विकास हुआ जिसे वल्लभ चित्र शैली के नाम से भी जाना जाता है।
नाथद्वारा शैली मे मेवाड़ की वीरता, किशनगढ़ का श्रृंगार तथा ब्रज के प्रेम भी समन्वित अभिव्यक्ति हुई है।
नाथद्वारा चित्र शैली में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के सर्वाधिक चित्र बने है।

बीकानेर चित्र शैली :-
मारवाड़ की शैली की ही उप शैली के रूप में विकसित बीकानेर चित्र शैली के कलाकारों को उस्ताद कहा जाता है।
राजस्थान में बीकानेर एकमात्र ऐसी चित्र शैली है जिसमें चित्रकारों ने चित्र के साथ अपने नाम भी लिखे है।
महाराजा अनूप सिंह के काल में बीकानेर चित्र शैली का सर्वाधिक विकास हुआ है।
बीकानेर चित्र शैली में भी दरबार, शिकार तथा वन-उपवन के चित्र बने हुए है।
बीकानेर चित्र शैली में धार्मिक ग्रन्थों के कथानकों पर भी महाराजा करणी सिंह के काल में सर्वाधिक चित्र बने।

अलवर चित्र शैली :-
आमेर तथा दिल्ली चित्र शैली की मिश्रित रूप में विकसित चित्र शैली है।
अलवर चित्र शैली पर सर्वाधिक मुगल चित्र शैली का प्रभाव पड़ा है।
अलवर चित्र शैली राजस्थान की एकमात्र ऐसी चित्र शैली है जिसमें मुगल गणिकाओं के भी चित्र बने है।
महाराजा बख्तावर सिंह के काल में अलवर चित्र शैली को मौलिक स्वरूप प्राप्त हुआ था।
महाराजा विनय सिंह का काल अलवर चित्र शैली का स्वर्ण युग था।
राजस्थान में मुगल बादशाहों के चित्र भी केवल अलवर चित्र शैली में बने।

राजस्थान की चित्रकला शैली मुख्य तथ्य :-
श्रृंगधर – मेवाड़ चित्र शैली का प्रथम चित्र कार
साहिब दीन – राग माला सेट, शूकर क्षेत्र महात्म्य
निसार दीन – चावण्ड शैली में राग माला

Rajasthan Art and Culture Ke Question Answer

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