राजस्थान के विशेष सहकारिता

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राजस्थान के विशेष सहकारिता

सहकारी समिति :- सहकारी समिति लोगों का ऐसा संघ है जो अपने पारस्परिक लाभ (सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक) के लिए स्वेच्छापूर्वक सहयोग करते हैं।
औद्योगिक क्रांति के कारण आर्थिक तथा समाजिक असंतुलन के परिणाम स्वरूप भारत में सहकारी आंदोलन की शुरूआत हुई। पूँजीवादी देश जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका तथा जापान और समाजवादी देश दोनों प्रकार के देशों में सहकारी समितियों ने विशेष स्थान बना है, सहकारी’ शब्द का अर्थ है- ‘साथ मिलकर कार्य करना’। इसका अर्थ हुआ कि ऐसे व्यक्ति जो समान आर्थिक उद्देश्य के लिए साथ मिलकर काम करना चाहते हैं वे समिति बना सकते हैं। इसे ‘सहकारी समिति’ कहते हैं। यह ऐसे व्यक्तियों की स्वयंसेवी संस्था है जो अपने आर्थिक हितों के लिए कार्य करते हैं। यह अपनी सहायता स्वयं और परस्पर सहायता के सिद्धान्त पर कार्य करती है। सहकारी समिति में कोई भी सदस्य व्यक्तिगत लाभ के लिए कार्य नहीं करता है। इसके सभी सदस्य अपने-अपने संसाधनों को एकत्रा कर उनका अधिकतम उपयोग कर कुछ लाभ प्राप्त करते हैं, जिसे वह आपस में बांट लेते हैं, सहकारी समिति, संगठन का एक प्रकार है जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा से, समानता के आधार पर अपने आर्थिक हितों के लिए मिलकर कार्य करते हैं। उदाहरणार्थ, एक विशेष बस्ती के विद्यार्थी विभिन्न कक्षाओं की पुस्तकें उपलब्ध कराने हेतु एकत्रा होकर एक सहकारी समिति बनाते हैं। अब वे प्रकाशकों से सीधे ही पुस्तकें क्रय करके विद्यार्थियों को सस्ते दामों पर बेचते हैं। क्योंकि वे सीधे प्रकाशकों से ही पुस्तकें क्रय करते हैं इसलिए मध्यस्थों के लाभ का उन्मूलन होता है।

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सहकारी समितियों की विशेषताएँ – स्वैच्छिक संस्था :- एक सहकारी समिति व्यक्तियों की एक स्वैच्छिक संस्था है। एक व्यक्ति किसी भी समय सहकारी समिति का सदस्य बना सकता है, जब तक चाहे उसका सदस्य बना रह सकता है और जब चाहे सदस्यता छोड़ सकता है। आबद्ध खुली सदस्यता : सहकारी समिति की सदस्यता समान हितों वाले सभी व्यक्तियों के लिए खुली होती है। जाति, लिंग, वर्ण अथवा धर्म के आधार पर सदस्यता प्रतिबंधित नहीं होती, परन्तु किसी विशेष संगठन के कर्मचारियों की संख्या के आधार पर सीमित हो सकती है।
पृथक वैधानिक इकाई – एक सहकारी उपक्रम को ‘सहकारी समिति अधिनियम 1912’ अथवा राज्य सरकार के संबद्ध सहकारी समिति अधिनियम के अंतर्गत पंजीकरण कराना अनिवार्य होता है। एक सहकारी समिति का अपने सदस्यों से पृथक वैधानिक अस्तित्व होता है।
वित्तीय स्रोत – सहकारी समिति में पूंजी सभी सदस्यों द्वारा लगाई जाती है। इसके अलावा, पंजीकरण के बाद समिति ऋण ले सकती है। सरकार से अनुदान भी प्राप्त कर सकती है।

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सेवा उद्देश्य – एक सहकारी समिति का प्राथमिक उद्देश्य अपने सदस्यों की सेवा करना है, यद्यपि यह अपने लिए उचित लाभ भी अर्जित करती है। आबद्ध मताधिकार एक सदस्य को केवल एक मत देने का अधिकर होता है चाहे उसके पास कितने ही अंश हो।

हकारी समितियों के प्रकार :- सहकारी समितियों का वर्गीकरण उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं की प्रकृति के आधार पर किया जा सकता है। सहकारी समितियों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं , उपभोक्ता सहकारी समितियाँ – उपभोक्ताओं को यह उचित मूल्य पर उपभोक्ता वस्तुएं उपलब्ध करवाती हैं। ये समितियां आम उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए बनाई जाती हैं। ये सीधे उत्पादकों और निर्माताओं से माल खरीद कर वितरण श्रृंखला से मध्यस्थों का उन्मूलन कर देती है। इस प्रकार माल के वितरण की प्रक्रिया में मध्यस्थों का लाभ समाप्त हो जाता है और वस्तु कम मूल्य पर सदस्यों को मिल जाती हैं। कुछ सहकारी समितियों के उदाहरण हैं- केन्द्रीय भंडार, अपना बाजार, सुपर बाजार आदि।

उत्पादक सहकारी समितियाँ – ये समितियां छोटे उत्पादकों को उत्पादन के लिए कच्चा माल, मशीन, औजार, उपकरण आदि की आपूर्ति करके उनके हितों की रक्षा के लिए बनाई जाती है। हरियाणा हैंडलूम, बायानिका, एपको ;। च्च्ब्व्द्ध आदि उत्पादक सहकारी समितियों के उदाहरण हैं।

सहकारी विपणन समितियाँ – ये समितियां उन छोटे उत्पादकों और निर्माताओं द्वारा बनाई जाती हैं, जो अपने माल को स्वयं बेच नहीं सकते। समिति सभी सदस्यों से माल इकट्ठा करके उसे बाजार में बेचने का उत्तरदायित्व लेती है। अमूल दुग्ध पदार्थों का वितरण करने वाली गुजरात सहकारी दुग्ध वितरण संघ लिमिटेड ऐसी ही सहकारी विपणन समितियाँ है।

सहकारी वितीय समितियाँ – इस प्रकार की समितियों का उद्देश्य सदस्यों को वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना है। समिति सदस्यों से धन इकट्ठा करके जरूरत के समय उचित ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराती है। ग्राम सेवा सहकारी समिति और शहरी सहकारी बैंक, सहकारी ऋण समिति के उदाहरण हैं।
सहकारी सामूहिक आवास समितियाँ – ये आवास समितियाँ अपने सदस्यों को आवासीय मकान उपलब्ध कराने हेतु बनाई जाती हैं। ये समितियाँ भूमि क्रय करके मकानों अथवा फ्लैटों का निर्माण कराती हैं तथा उनका आबंटन अपने सदस्यों को करती हैं।

सहकारी समिति के लाभ – व्यावसायिक संगठन के सहकारी स्वरूप के निम्नलिखित लाभ हैं :- स्वैच्छिक संगठन – यह एक स्वैच्छिक संगठन है जो पूँजीवादी तथा समाजवादी, दोनों प्रकार के आर्थिक तंत्रों में पाया जाता है।

लोकतांत्रिक नियंत्रण – एक सहकारी समिति का नियंत्रण लोकतांत्रिक तरीके से होता है। इसका प्रबंधन लोकतांत्रिक होता है तथा ‘एक व्यक्ति-एक मत’ की संकल्पना पर आधरित होता है।

खुली सदस्यता – समान हितों वाले व्यक्ति सहकारी समिति का गठन कर सकते हैं। कोई भी सक्षम व्यक्ति किसी भी समय सहकारी समिति का सदस्य बन सकता है और जब चाहे स्वेच्छा से समिति की सदस्यता को छोड़ भी सकता है।

मध्यस्थों के लाभ का उन्मूलन – सहकारी समिति में सदस्य उपभोक्ता अपने माल की आपूर्ति पर स्वयं नियंत्रण रखते हैं, क्योंकि माल उनके द्वारा सीधे ही विभिन्न उत्पादकों से क्रय किया जाता है। इसलिए इन समितियों के व्यवसाय में मध्यस्थों को मिलने वाले लाभ का कोई स्थान नहीं रहता।

सीमित देनदारी – सहकारी समिति के सदस्यों की देनदारी केवल उनके द्वारा निवेशित पूंजी तक ही सीमित है। एकल स्वामित्व व साझेदारी के विपरीत सहकारी समितियों के सदस्यों की व्यक्तिगत सम्पत्ति पर व्यावसायिक देनदारियों के कारण कोई जोखिम नहीं होता।

स्थिर जीवन – सहकारी समिति का कार्य काल दीर्घ अवधि् तक स्थिर रहता है। किसी सदस्य की मृत्यु, दिवालियापन, पागलपन या सदस्यता से त्यागपत्रा देने से समिति के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, सहकारी समिति की सीमाएँ, उपरोक्त लाभों के अतिरिक्त सहकारी समिति संगठन की कुछ सीमाएं भी है।

अभिप्रेरण की कमी – लाभ कमाने का उद्देश्य न होने के कारण सहकारी समिति के सदस्य पूर्ण उत्साह एवं समर्पणभाव से कार्य नहीं करते।

सीमित पूँजी – साधरणतया सहकारी समितियों के सदस्य समाज के एक विशेष वर्ग के व्यक्ति ही होते हैं। इसलिए समिति द्वारा एकत्रित की गई पूंजी सीमित होती है।

प्रबंधन में समस्याएँ – सहकारी समिति का प्रबंधन प्रायः विशेष कुशल नहीं होता क्योंकि सहकारी समिति अपने कर्मचारियों को कम पारिश्रमिक देती है।

प्रतिबद्धता का अभाव – प्रतिबद्धता का अभाव सहकारी समिति की सफलता उसके सदस्यों की निष्ठा पर निर्भर करती है जिसे न तो आश्वस्त किया जा सकता है और न ही बाध्य किया जा सकता है।

सहयोग की कमी – सहकारी समितियां परस्पर सहयोग की भावना से बनाई जाती हैं। लेकिन अधिकतर देखा जाता है कि व्यक्तिगत मतभेदों और अहंभाव के कारण सदस्यों के बीच लड़ाई-झगड़ा और तनाव बना रहता है। सदस्यों के स्वार्थपूर्ण रवैये के कारण कई बार समितियां बंद भी हो जाती हैं।

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