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पृथ्वी की आंतरिक संरचना
पृथ्वी की आंतरिक संरचना :- पृथ्वी पर प्रतिदिन का अनुभव हमें सुझाता है कि हमारा ग्रह उल्लेखनीय विविधता लिए है। पृथ्वी में शामिल पदार्थों का फैलाव जल और बर्फ से लेकर वायुमंडलीय गैसों तथा कई चट्टानों और खनिजों के भंडार के रूप में देखा जा सकता है। फिर भी हमारे द्वारा अधिग्रहित जैवमंडल की पतली परत पूरी पृथ्वी का परिचायक नहीं है। पृथ्वी की सतह से कुछ दस एक किलोमीटर नीचे तक हमारा ग्रह कम विविधता लिए है, इस क्षेत्र में केवल चट्टानें, खनिज और धातुओं के यौगिक हैं।”
अर्थ, जेम्स एफ. लुहर (एडीटर इन चीफ) डॉलिंग किंडरसली लिमिटेड, लंदन, 2003, पृथ्वी की सतह के विभिन्न पहलुओं के बारे में हमनें बहुत सारी जानकारी संग्रहित कर ली है। ये जानकारियाँ हमारे प्रत्यक्ष अवलोकन से ही संभव हुई है। हम पृथ्वी की सतह का अन्वेषण और सर्वेक्षण करने के साथ नक्शा भी बना सकते हैं। वैज्ञानिकों ने चट्टानों का विश्लेषण कर लिया है, किंतु पृथ्वी के भीतरी (आंतरिक) भाग के संबंध में प्रत्यक्ष अवलोकन नहीं किए जा सका है। हम पृथ्वी के भीतरी भाग को कुछ किलोमीटर से अधिक नहीं भेद सके हैं। पृथ्वी की भीतरी पर्त छह हजार किलोमीटर से भी अधिक गहरी है। भीतरी पर्त की गहराई को देखते हुए हमारे द्वारा भेदी गई गहराई विशेष महत्व नहीं रखती है। जब प्रत्यक्ष अवलोकन संभव नहीं होता, तब भूवैज्ञानिक (पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक) विभिन्न अप्रत्यक्ष प्रमाणों पर निर्भर होते हैं। भूकंपों और ज्वालामुखियों से पृथ्वी के आंतरिक भाग के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। अक्सर भूकंप पृथ्वी के आंतरिक भाग में दबे रहस्यों को उजागर करते हैं और ज्वालामुखी पृथ्वी की गहराई में स्थित तत्वों को धरती की सतह की ओर उगल देते हैं, भूकंपी तरंगों की संचरण गति में पृथ्वी की विभिन्न पर्तों के अनुसार परिवर्तन होता है। इस प्रकार पृथ्वी की विभिन्न पर्तों से गुजरने वाली भूकंपी तरंगों का गति का मापन, वैज्ञानिकों को पृथ्वी के आंतरिक भाग का अध्ययन करने में सहायक होता है। वैज्ञानिकों द्वारा पृथ्वी के घूर्णन और पृथ्वी के विभिन्न भागों के गुरुत्व में अंतर का भी अध्ययन किया जाता है। वे चांद (पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह) के आकर्षण प्रभाव से सागरों में होने वाली ज्वार नामक परिघटना का भी अवलोकन करते हैं, वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के आंतरिक भाग से संबंधित कुछ सिद्धांतों को व्यवस्थित किया है, जिनकी सहायता से वे पृथ्वी के आंतरिक भाग में उपस्थित माहौल को कृत्रिम रूप से बनाने का प्रयत्न करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि पृथ्वी के आंतरिक भाग की गतिविधियों को समझ सकें। इस प्रकार के कुछ अध्ययनों के आधार पर वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के आंतरिक क्षेत्र के बारे में एक प्रयोगात्मक (टेन्टेटिव) चित्र विकसित किया है। जैसे-जैसे पृथ्वी के आंतरिक भाग से संबंधित नई-नई सूचनाएं प्राप्त होती जाती है पुराने विचारों में सुधार होता जाता है। कुछ परिणामों की सत्यता को लेकर कोई संदेह नहीं है। उदाहरण के लिए पृथ्वी की पर्तदार संरचना और पृथ्वी की आंतरिक क्रोड का ठोस होना स्वीकार कर लिया गया है। किंतु अभी भी कुछ सिद्धांत पूर्णतः स्वीकारे नहीं गए हैं और ये नए ज्ञान द्वारा सत्यापन की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।
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जंतु जगत का वर्गीकरण
पृथ्वी की विभिन्न पर्तें – पृथ्वी की तीन प्राथमिक पर्तें जो बाहर से आंतरिक दिशा की ओर हैं, वह निम्न हैं :-
1) भूपटल (क्रस्ट),
2) प्रावार (मैंटल), और
3) क्रोड (कोर)।
भूपटल :- पृथ्वी की बाहरी सतह भूपटल या भूपर्पटी कहलाती है। यह पर्त अन्य सभी पर्तों से पतली होती है। भूपटल की मोटाई महाद्वीपीय क्षेत्र में लगभग तीस किलोमीटर तक और महासागरों के नीचे लगभग दस किलोमीटर तक हो सकती है। यह पर्त पृथ्वी के संपूर्ण द्रव्यमान का करीब 0.5 प्रतिशत हिस्सा रखती है। पृथ्वी का सबसे बाहरी पर्त यानी भूपटल मुख्यतः बेसाल्ट और ग्रेनाइट से बनी होती है। यह पर्त आंतरिक पर्तों की अपेक्षा अधिक ठंडी और कठोर होती है, पृथ्वी की भूपटल पर्त ही जीवमंडल, जलमंडल और वायुमंडल को संजोए हुए है। पृथ्वी पर जीवन रूप से, भूपटल की गहराई से लेकर निचले वायुमंडल तक फैले हुए जीवमंडल क्षेत्र में ही विद्यमान है। लगभग 1000 किलोमीटर ऊंचाई तक पृथ्वी के चारों ओर गैसों का घेरा या आवरण वायुमंडल कहलाता है। जलमंडल को समुद्रों, सागरों, झीलों, हिमनदों आदि जलस्रोतों सहित धरती की सतह पर उपलब्ध समस्त जल क्षेत्र के रूप में परिभाषित किया जाता है, ऊपरी प्रवास के शीर्ष पर स्थित भूपटल को दो मुख्य भागों-महाद्वीपीय भूपटल और महासागरीय भूपटल में विभाजित किया गया है, महासागरीय और महाद्वीपीय भूपटल उनके संघटन, घनत्व और मोटाई के अनुसार भिन्न हैं। महासागारीय भूपटल अपेक्षाकृत नवीन है, इसका कोई भी हिस्सा 20 करोड़ वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। महासागरीय भूपटल का निर्माण प्रावार के पदार्थों से, लंबी दरारों (रिफ्ट), जिन्हें फैलते कटक या पर्वत-श्रेणियों (रिज) से जाना जाता है, के भीतर लगातार होता रहता है। भूपटल के कुल द्रव्यमान का केवल 30 प्रतिशत भाग रखने वाला महासागरीय भूपटल पृथ्वी सतह का लगभग 61 प्रतिशत भाग घेरे हुए है।
प्रावार :- पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा रखने वाला प्रावार क्षेत्र मोटी चट्टानों से बना होता है। भूपटल से नीचे और क्रोड के ऊपर स्थित होने वाला प्रावार क्षेत्र लगभग 3480 किलोमीटर गहरा होता है। प्रावार पर्त मुख्यतः लौह-मैगनीशियम सिलिकेट से बनी होती है।
प्रावार के भाग – प्रावार को निम्नांकित उपवर्गों में बाँटा गया है :-
1) ऊपरी प्रावार,
2) संक्रमण क्षेत्र और
3) निम्न प्रावार।
ऊपरी प्रावार :- पृथ्वी के कुल द्रव्यमान के लगभग 10 प्रतिशत हिस्से से निर्मित ऊपरी प्रावार क्षेत्र का घनत्व 3.25 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर से लेकर 3.40 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर तक होता है। ऊपरी प्रावार क्षेत्र को निम्न वेग क्षेत्र कहा जाता है। यह क्षेत्र 70 किलोमीटर से 250 किलोमीटर तक की गहराई में स्थित होता है। ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र के अधिकतर भाग का निर्माण लावा (मैग्मा) या पृथ्वी के भूपटल में स्थित या इसके नीचे स्थित पिघले पदार्थों से हुआ है।
संक्रमण क्षेत्र :- पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 17 प्रतिशत भाग रखने वाला संक्रमण क्षेत्र का फैलाव भूपृष्ठ से 400 किलोमीटर से लेकर 1000 किलोमीटर तक की गहराई तक होता है।
निम्न प्रावार :- निम्न प्रावार पृथ्वी के कुल द्रव्यमान का लगभग 41 प्रतिशत हिस्सा होता है और यह पृथ्वी की सतह से नीचे की ओर 1000 किलोमीटर से लेकर 2900 किलोमीटर के बीच स्थित होता है।
प्रावार के गुणधर्म :- प्रावार पर्त अपने यांत्रिक गुणों और रासायनिक संघटन के कारण भूपटल से भिन्न होती है। भूपटल और प्रावार के बीच इनके रासायनिक गुणों, चट्टानों के प्रकार और अन्य महत्वपूर्ण लक्षणों के आधार पर अंतर किया जाता है। प्रावार पर्त में हिलने-डुलने की क्षमता होती है। पृथ्वी के क्रोड और प्रावार के बीच उच्च ताप और दाब प्रवणता होती है, जिसके परिणामस्वरूप संवहन धारा बनने के साथ पृथ्वी के द्रव्यमान का संचरण होता है। इस प्रक्रिया में पृथ्वी से गर्म पिघला लावा बाहर आता है और ठंडी चट्टानें उसकी जगह लेने धरती के अंदर पहुंच जाती हैं।
स्थलमंडल :- हालांकि भूपटल और ऊपरी प्रावार एक-दूसरे को छूते नहीं हैं लेकिन ये दोनों क्षेत्र संयुक्त रूप से स्थलमंडल से संबंधित होते हैं। स्थलमंडल शब्द का अर्थ चट्टानों का गोला है। भूपटल और प्रावार को ‘मोहरोविसिक असांतत्य’ नामक एक अनियमित रेखा विभाजित करती है। इस रेखा का नामकरण क्रोएशियन भूभौतिकविद् एंड्रिया मोहरोविसिक (1857-1936) के नाम पर किया गया है। अक्सर मोहरोविसिक असांतत्य रेखा को मोहो भी कहा जाता है। यह रेखा रासायनिक संघटन में महत्वपूर्ण और तीव्र परिवर्तन को चिन्हित करती है। मोहो रेखा भूपटल और प्रावार के मध्य स्पष्ट सीमा बनाती है, स्थलमंडल के नीचे स्थित दुर्बलमंडल (एस्थेनोस्पियर) या दुर्बलता गोलक (स्फीयर ऑफ विकनेस) कहलाने वाले क्षेत्र का तापमान, चट्टानों के पिघलने के लिए आवश्यक तापमान जितना अधिक होता है।
क्रोड :- बाहरी क्रोड मुख्यतया निकल-लौह के मिश्र धातुओं से और भीतरी क्रोड अधिकतर लौह तत्व के यौगिकों से बनी होती है। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र बाहरी तरल क्रोड से नियंत्रित होता है। क्रोड पर्त की कुल मोटाई लगभग 3500 किलोमीटर मानी जाती है।
क्रोड के भाग – क्रोड निम्न तीन क्षेत्र रखता है :-
1) आंतरिक क्रोड,
2) बाहरी क्रोड और
3) आंतरिक क्रोड और बाहरी क्रोड के मध्य स्थित संक्रमण क्षेत्र।
बाहरी क्रोड :- बाहरी क्रोड की मोटाई लगभग 1600 किलोमीटर से अधिक होती है। ऐसा माना जाता है कि बाहरी क्रोड तरल अवस्था में होता है। सन् 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘कैलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के वैज्ञानिकों ने कम्प्यूटर द्वारा बाहरी क्रोड का नक्शा तैयार किया था। इस नक्शे से यह पता चलता है कि क्रोड एक समान गोल सतह के रूप में नहीं है, बल्कि इसमें हजारों किलोमीटर तक फैली विशाल चोटियां और घाटियां होती हैं, जिनकी लंबवत ऊंचाई 3 से 10 किलोमीटर तक हो सकती हैं।
आंतरिक क्रोड :- आंतरिक क्रोड की मोटाई लगभग 1300 किलोमीटर होती है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि पृथ्वी की आंतरिक क्रोड ठोस अवस्था में होती है।
आंतरिक क्रोड और बाहरी क्रोड के मध्य स्थित संक्रमण क्षेत्र :- संक्रमण पर्त की मोटाई लगभग 480 किलोमीटर होती है।
महाद्वीपीय विसरण सिद्धांत :- महाद्वीपीय विसरण पृथ्वी के महाद्वीपों की एक-दूसरे के सापेक्ष गति से संबंधित है। सन् 1915 में जर्मन भूभौतिकविद् अल्फ्रेड लोथर वैगनर (1880-1930) ने पहली बार महाद्वीपीय विसरण के सिद्धांत को प्रस्तुत किया था। वह वैगनर ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम यह सुझाया था कि पहले पृथ्वी की सतह पर एक ही विशाल भूखंड था,जो बाद में छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट गया। एक-दूसरे से दूर होते ये टूटे हुए टुकड़े ही उन महाद्वीपों के रूप में अस्तित्व में आए, जिन्हें आज हम महासागरों से अलग हुई धरती के रूप में देखते हैं, इस सिद्धांत के अनुसार एक समय (22.5 करोड़ वर्ष पूर्व) पैंजिया कहलाने वाला केवल एक विशाल महाद्वीप था। उस समय इस विशाल महाद्वीप को छोड़कर पृथ्वी के समस्त भाग पर महासागर उपस्थित थे। करीब 20 करोड़ वर्ष पूर्व पैंजिया दो मुख्य महाद्वीपों लॉरेशिया (जिसमें अब के उत्तरी अमेरिका और यूरेशिया शामिल थे) और गौंडवानालैंड (जिसमें अब के भारत, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और अंटार्कटिका शामिल थे) में बंट गया। अलग हो जाने के बाद ये दोनों महाद्वीप पृथ्वी की सतह के सापेक्ष विपरीत दिशाओं में गति करने लगे। समय के साथ-साथ ये दोनों महाद्वीप लागातर गति करते हुए आगे चलकर अनेक छोटे भूमि खंडों में टूटने लगे थे। कुछ परिस्थितियों में इन गतिशील खंडों ने टकराकर एवं सम्मिलित होकर पुनः विशाल भूखंडों का आकार ग्रहण किया, वैगनर के इस सिद्धांत ने पृथ्वी विज्ञान संबंधी अनुसंधान को नई दिशाएं दी। वैगनर के विचार ने भूकंप एवं ज्वालामुखी गतिविधियों, पर्वतों और घाटियों के निर्माण एवं अन्य अनेक भूगर्भीय क्रियाओं को समझने में अहम योगदान दिया। महाद्वीपीय विसरण की संकल्पना आगे चलकर प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत का अभिन्न अंग साबित हुई।
प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत :- कनाडा के जॉन टुजो विल्सन (1908-1993) ने सन् 1965 में प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत को प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत को पृथ्वी के स्थलमंडल की वृहद स्तरीय गति को बखूबी समझाने के लिए विकसित किया गया था। इस सिद्धांत ने महाद्वीपीय विसरण के पुराने सिद्दांत का स्थान लिया, इस सिद्दांत के अनुसार स्थलमंडल विवर्तनिक प्लेटें कहलाने वाली छोटी प्लेटों में टूटा हुआ है। ये प्लेटें एक-दूसरे के अलावा प्रावार के सापेक्ष भी धीमे-धीमे गति करती हैं। ऐसा माना जाता है कि इन प्लेटों के नीचे की पर्त के आंशिक तरल के रूप में होने से ये प्लेटें गतिमान होती हैं। इस पर्त को दुर्बलमंडल (एस्थेनोस्फियर) कहा जाता है। यह माना जाता है कि यह सीधे भूपटल के नीचे विद्यमान न होकर प्रावार के ऊपर और भूपृष्ठ से करीब 70 से 260 किलोमीटर नीचे स्थित होती है। स्थलमंडल के नीचे स्थित प्रावार क्षेत्र रासायनिक रूप से चट्टानों की भांति ही होता है, किंतु ऊष्मा और दाब के द्वारा इसमें स्थायी परिवर्तन होने के कारण इसे स्थलमंडल का हिस्सा नहीं माना जाता है।
विवर्तनिक प्लेटों के निम्न दो प्रकार हैं –
1) महाद्वीपीय
2) महासागरीय
मुख्यतया विवर्तनिक प्लेटें सात प्रकार की होती हैं –
1) पैसिफिक प्लेट (सबसे विशाल),
2) अफ्रीकन प्लेट,
3) यूरेशियन प्लेट,
4) आस्ट्रेलियन प्लेट,
5) नार्थ अमेरिकन प्लेट,
6) अंटार्कटिक प्लेट,
7) साउथ अमेरिकन प्लेट।
यह सात प्लेटें पृथ्वी के 94 प्रतिशत भाग को घेरे हुए हैं, शेष 6 प्रतिशत हिस्सा छोटी प्लेटों से बना है। अन्य छोटी प्लेटों से निम्नांकित प्लेटें शामिल हैः
8) फिलपींस प्लेट,
9) जुआन डे फुका प्लेट,
10) कोकोस प्लेट,
11) कैरेबियन प्लेट,
12) नस्का प्लेट,
13) स्काटिया प्लेट,
14) सोमाली प्लेट,
15) अरेबियन प्लेट, और
16) इंडियन प्लेट।
प्लेटों का आकार स्थिर न होकर सतत बदलता रहता है। कुछ प्लेटों का आकार बढ़ रहा है तो कुछ का कम हो रहा है। प्लेट सीमा में होने वाला यह परिवर्तन पर्वतों, कटक एवं गहरी सागरीय खाड़ियों से निर्धारित होता है। प्लेट सीमा तीन प्रकार के होती हैं।
अभिसारी सीमा :- जहां प्लेटें एक-दूसरे के पास आती हैं वहा अभिसारी सीमा बनती है। अभिसारी प्लेट सीमा महासागरीय प्लेटों को शामिल किए होती है जो गहरी सागरीय खाड़ियों द्वारा चिन्हित होती है। किंतु धरती पर अभिसारी सीमा का निर्धारण पर्वत श्रृंखलाओं द्वारा किया जाता है। इस प्रकार की सीमाओं पर ज्वालामुखी द्वीपीय चाप बनते हैं।
महासागरीय-महाद्वीपीय अभिसरण :- जब महासागरीय प्लेटें, महाद्वीपीय प्लेटों के सामने हैं तब अधिक घनत्व वाली महासागरीय प्लेट, हल्की महाद्वीपीय प्लेट के नीचे सरक कर अवरोहण (सबडक्शन) क्षेत्र का निर्माण करती है।
महासागरीय-महासागरीय अभिसरण :- नई प्लेट की तुलना में पुरानी प्लेट अधिक घनत्व वाली और ठंडी होती है इसलिए जब दो महासागरीय प्लेटें समीप आती हैं तब पुरानी प्लेट नई प्लेट के नीचे चली जाती है या डूब जाती है। प्लेटों की इस उथल-पुथल से खाड़ियों का निर्माण होता है। मैरियाना खाई (मैरियाना ट्रैंच) उस स्थान को चिन्हित करती है, जहां अधिक तेजी से घूमने वाली प्रशांत प्लेट धीमी गति वाली फिलीपंस प्लेट के नीचे चली जाती है। चैलेंजर डीप के दक्षिणी सिरे पर स्थित ‘मैरियानास खाई’ की गहराई (11,000 मीटर) विश्व के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई (समुद्र तल से 8854 मीटर) से भी अधिक है।
महाद्वीपीय-महाद्वीपीय अभिसरण :- धरती पर अभिसारी सीमा पर्वत श्रृंखला के द्वारा चिन्हित होती है। हिमालय पर्वत श्रृंखला विवर्तनिक प्लेटों की क्रियाओं का स्पष्ट दिखाई देने वाला परिणाम है जब दो महाद्वीपीय प्लेटें मिलती हैं तब महाद्वीपीय चट्टानों की हल्की प्रवृत्ति और अधोमुखी गति का प्रतिरोध करने के कारण इनमें से कोई भी एक-दूसरे के नीचे नहीं खपती है। इसके बदले भूपटल पार्श्व में या ऊपर उठने की प्रवृत्ति रखता है। 5 करोड़ वर्ष पहले एशिया में भारत के सम्मिलन होने से यूरोपियन प्लेट, इंडियन प्लेट के ऊपर चढ़ गई थी। इस टकराहट के बाद लाखों वर्षों के दौरान इन दो प्लेटों के धीरे-धीरे अभिसरित होने के परिणामस्वरूप ही हिमालय पर्वत और तिब्बती पठार अपने वर्तमान स्वरूप में पहुंचे हैं। इनका अधिकतर विकास पिछले एक करोड़ वर्षों के दौरान हुआ है। आज हिमालय पर्वत समुद्र सतह से 8854 मीटर ऊंचाई के साथ विश्व का सबसे ऊंचा महाद्वीपीय पर्वत है।
अपसारी सीमा :- जब प्लेटों एक दूसरे से दूर गति करती हैं तब अपसारी सीमा का निर्माण होता है। इस प्रकार अपसारी सीमा धीमे से फैलती हुई विभ्रंश (रिफ्ट) घाटी से चिन्हित होती है जब दो संलग्न प्लेटें एक दूसरे से दूर गति करती हैं तब प्रावार ऊपर की ओर उठ कर आंशिक पिघल कर बेसाल्टिक लावा बनाता है। अपसारी सीमा का एक उदाहरण मध्य अटलांटिक कटक या मेढ़ (मिड अटलांटिक रिज) है।
रूपांतरित सीमा :- महाद्वीपों और महासागरों को ढोने या वहन करने वाली विवर्तिनक प्लेटें सदैव गतिमान रहती हैं। यद्यपि इन प्लेटों की गति तो बहुत धीमी, जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, होती है लेकिन फिर भी ये गति करती रहती हैं और इनकी गति के कारण महाद्वीप चारों तरफ अभिसरित होते रहते हैं। प्लेटों की गति समुद्रों, पर्वतों और ज्वालामुखियों के निर्माण को आगे बढ़ाती है। सामान्यतया प्लेट सीमा समुद्रों या महाद्वीपों से संलग्न क्षेत्रों में पाई जाती है। कुछ प्लेटें धरती पर पाई जाती हैं जो प्रायः पर्वतों या ज्वालामुखीय द्वीप के चाप से चिन्हित होती है।
General Science Notes |
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