पौधों में होने वाले रोगों के नाम

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पादप रोग :- पौधों में किसी भी प्रकार का विघ्न जो उसकी सामान्य संरचना, कार्य अथवा आर्थिक उपयोगिता में अवरोध उत्पन्न करता है, पादप रोग (Plant disease) कहलाता है।भारत जैसे कृषि प्रधान देश में विभिन्न पादप रोग, कीट, खर-पतवार आदि से कुल खाद्यान्न का लगभग 18% का प्रतिवर्ष नुकसान होता है।

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पादप रोग के कारण – पौधों में कई रोग के लिए कई कारक उत्तरदायी हैं जो पौधों में असामान्य लक्षण पैदा करते हैं।
पौधों में होने वाले रोगों के नाम
तम्बाकू का मोजेक :- तम्बाकू के पौधों में होने वाले इस रोग का कारक टोबेको मोजैक वाइरस (Tobacco Mosaic virus—TMV) है। इस रोग में पौधों की पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं, साथ-ही-साथ ये छोटी भी हो जाती हैं। पत्तियों में उपस्थित हरित लवक (Chlorophyn) नष्ट हो जाता है। रोग से प्रभावित पौधों को काटकर शेष पौधों से अलग कर देना चाहिए तथा जला देना चाहिए। फसल परिवर्तन विधि को अपनाना चाहिए। रोग निरोधी प्रजाति को बोने में प्राथमिकता देनी चाहिए।
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आलू का मोजेक रोग :- यह रोग पोटैटो वायरस (Potato virus-x) से होता है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियाँ चितकबरापन (Mottling) तथा बौनापन (Dwarfing) लक्षण प्रदर्शित करती है। कन्दों पर ऊतकक्षय (Necrosis) होता है। इस रोग से प्रभावित पौधों को इकट्ठा कर जला देना चाहिए। इस रोग का नियंत्रण भी टोबेको मोजैक रोग की भाँति ही किया जाता है।
पौधों में होने वाले रोगों के नाम
बंकी टॉप ऑफ बनाना :- इस पादप रोग का कारक बनाना वाइरस-r (Banana virus-1) है। इस रोग में केले के पौधे बौने हो जाते हैं तथा उनके वृन्तों पर हरी धानियाँ, पर्णहरित रहित और सभी पत्तियाँ शिखर पर गुलाबवत एकत्रित हो जाती हैं।
पौधों में होने वाले रोगों के नाम
आलू का शैथिल रोग :- इस रोग का कारक स्यूडोसोनास सोलेनेसियेरम (Pseudomonas solanacearum) नामक एक जीवाणु है। इस रोग को रिंग रोग (Ring disease) के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग में पौधे का संवहन तंत्र प्रभावित होता है। पौधों की पत्तियाँ पीली हो जाती हैं। जाइलम (xylem) पर भूरा रिंग (Brown ring) बन जाता है। यह रोग मिट्टी के माध्यम से फैलता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु 0.02% स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (streptocycline) 30 मिनट के लिए प्रयुक्त करना चाहिए साथ-ही साथ फसल चक्र विधि को भी अपनाना चाहिए।
पौधों में होने वाले रोगों के नाम
ब्लैक आर्म या एंगुलर लीफ स्पॉट ऑफ कॉटन :- इस रोग का कारक जैन्थोमोनास (Xanthomonas) नामक जीवाणु है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर छोटी-सी जलाद संरचना बन जाती है जो बाद में भूरी हो जाती है। तनों पर काले लम्बे क्षत चिह्न हो जाते हैं। रोग का प्राथमिक संक्रमण बीज द्वारा होता है जो वर्षा या ओस में फैलता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु रोग पौधों को नष्ट कर देना चाहिए। रोगरोधी प्रजाति को बोना चाहिए। बीजों को एग्रेसान सी एन (Agrosan CN) या सेरेसान (Ceresan) 2.5 मिग्रा. प्रति किग्रा. द्वारा शोधित करना चाहिए।

धान का अंगमारी रोग :- इस रोग का कारक जैन्थीमीनास आोराइजी (xanthomonas oryzae) नामक जीवाणु है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों के एक या दोनों सतहों पर पीला-हरा स्पॉट दिखायी पड़ता है। यह स्पॉट बाद में पीली होकर भूरी किनारों वाली पत्ती ऊपर से मुरझाने लगती है। इस रोग का संचरण मुख्यतः बीज के माध्यम से होता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु बीजों को 12 घण्टे एग्रीमाइसिन (Agremycine) 0.025% के घोल में तथा 0.05% सेरेसान (Ceresan) के घोल में रखना चाहिए । तत्पश्चात उन्हें 52°- 54°C के गर्म जल में 30 मिनट तक रखना चाहिए। ऐसा करने से इस रोग का 90% नियंत्रण संभव हो जाता है।

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साइट्रस कैंकर :- इस रोग का कारक जैन्थोमोनाससीट्री (Xanthomonas citri) नामक जीवाणु है। यह रोग नीबू उत्पादन हेतु गम्भीर समस्या उत्पन्न करता है। इस रोग के कारण पौधे की पत्तियाँ, शाखाएँ, फल सभी कुछ प्रभावित होते हैं। पत्तियों पर छोटे गोल जलाद चिह्न जो कि भूरे रंग के होते हैं, प्रारम्भ में बनते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे बोने से पहले 1% बोर्डियेक्स मिक्सचर (Bordeauxe mixture) का छिड़काव करना चाहिए। रोग लग जाने की स्थिति में एन्टिबायोटिक स्ट्रेप्टोमाइसीन, फाइटोमाइसीन आदि का छिड़काव करना चाहिए।

गेंहूँ का टूण्डू रोग :- इस रोग का कारक इन्डोबायोटिकम (Corynbacterium endobioticum) नामक जीवाणु एवं एंजइना ट्रीटिकी (Arguina tritici) नामक नेमैटोड है। इस रोग में पत्तियों के नीचे का भाग मुरझाकर मुड़ जाता है। तत्पश्चात एक पीले रंग के पदार्थ का स्राव होता है जो गेहूँ की बालियों को नष्ट कर देता है। इस रोग के कारण पौधा छोटा हो जाता है। यह रोग फसल पकने पर ही दृष्टिगोचर होता है। इस रोग का नियंत्रण रोगमुक्त बीजों को बोकर ही संभव है।

आलू का वार्ट रोग :- इस रोग का कारक सिनकीट्रियम इन्डोबायोटिकम (Synchytrium endobioticum) नमक कवक (Fungus) है। इस रोग के कारण आलू के कन्द (Tuber) में काले धागे जैसी संरचना बन जाती है और कभी-कभी सम्पूर्ण आलू ही सड़ जाता है। इस रोग का नियंत्रण कोरेन्टाइन (Quarantine) विधि से स्वस्थ क्षेत्र में रोग का प्रवेश रोककर तथा HgCl2, CuSO4 आदि रसायनों का भूमि पर छिड़काव कर किया जा सकता है। रोगरोधी प्रजातियों को बोकर भी इस रोग पर काफी हद तक नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है।

आलू का उत्तरभावी अंगमारी रोग :- इस रोग का कारक फाइटोप्थोरा इन्फेस्टेन्स (Phytophthora infestans) नामक कवक है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर सर्वप्रथम भूरे रंग का धब्बा बनता है जो अनुकूल मौसम की परिस्थिति में बढ़कर बड़े-बड़े काले धब्बे में परिवर्तित हो जाता है। इस रोग के कारण अंत में पतियाँ पूरी तरह झुलस जाती हैं और पौधा सूख जाता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु विभिन्न प्रकार के कवकनाशियों का छिड़काव करना चाहिए।

बाजरा का ग्रीन ईयर रोग :- इस रोग का कारक स्केलरोस्पोरा ग्रेमिकोला (Sclerospora gramicola) नामक कवक है । इस रोग को डाउनी मिल्ड्यू (Downy mildevv) रोग भी कहते हैं। इस रोग के कारण बाजरे की बालियों में हरे रंग के रेशे निकल जाते हैं, जो बाद में काले रंग के चूर्ण में बदल जाते हैं। इस रोग के नियंत्रण के लिए बीजों को थिराम (Thiram) या एग्रेसान (Agresan) से शोधित करना चाहिए। रोग लग जाने की स्थिति में डाइथेन एम-45 (Dithane M-45) का छिड़काव करना चाहिए। रोग रोधी प्रजातियों की बुवाई भी इस रोग को नियंत्रित करने हेतु एक उपयोगी कदम है।

गन्ने का लाल सड़न रोग :- इस रोग का कारक कोलेटोटिकम फालकटम (Colletotricurn falcatum) नामक कवक है। इस रोग के कारण गन्ने की तने और पतियों में लाल धारियाँ हो जाती हैं। तने का छोटा होना, पत्तियों का मुरझाना तथा तने का फटना इस रोग के अन्य प्रमुख लक्षण हैं। गन्ने के रस में से शराब (wine) जैसी गंध आती है। इस रोग के नियंत्रण हेतु स्वस्थ गन्ने की बुवाई करनी चाहिए।

मूंगफली का टिक्का रोग :- इस रोग का कारक सर्कोस्पोरा पर्सेनेटा (Corcospora personata) नामक कवक है। इस रोग के कारण पत्ती के दोनों सतहों पर गोल गोल धब्बे बन जाते हैं। इस रोग पर नियंत्रण हेतु बोर्डियक्स मिक्चर (Bordeaux mixture), डाइथेन एम-45 (Dithane M-45) का छिड़काव करना चाहिए।

गेहूँ का किट्टू रोग :- इस रोग का कारक पक्सिनिया ग्रेमिनिस ट्रिटिकी (Puccinia graminis tritici) नामक कवक है । इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों तथा तनों पर लाल-भूरे रंग का धब्बा बन जाता है जो देखने में जंग (Rust) जैसा लगता है। इस रोग के लिए उत्तरदायी कवक में 5 प्रकार के स्पोर पाए जाते हैं, जिनमें से टेल्यूटोस्पोर (Teleutospore) सबसे अधिक हानिकारक होता है। इस कवक के स्पोर गेहूँ के अतिरिक्त एक जंगली घास ‘बारबेरी’ (Barbery) पर भी उपस्थित होते हैं। यही कारण है कि यह पादप रोग वर्ष-प्रति वर्ष विद्यमान रहता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु भारतीय कृषि वैज्ञानिक डा.के.सी मेहता ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इस रोग का नियंत्रण कवकनाशी का छिड़काव पर तथा रोग प्रतिरोध प्रजाति की बुवाई कर किया जा सकता है।

गेहूं का ढीला कण्ड :- इस रोग का कारक अस्टिलागी नूडा ट्रिटीकी (Ustilogo nuda tritici) नमक कवक है। इस रोग के कारण गेहूँ की बलियों में कालिख (राख) के समान पाउडर (चूर्ण) जैसा पदार्थ भर जाता है। इस रोग का संक्रमण बीज द्वारा होता है। अतः इस रोग के नियंत्रण हेतु रोग प्रतिरोधी बीजों की बुवाई एक प्रभावी कदम है। रोग हो जाने की स्थिति में वीटावेक्स बेनलेट और कार्बाक्सिन जैसे कवकनाशियों का प्रयोग करना चाहिए।

डैम्पिंग ऑफ़ या आद गलन :- रोग से प्रभावित बीज भूमि में उगने में असमर्थ होते हैं या फिर वे उगते ही मर जाते हैं। कवक का प्रभाव पौधों की जड़ों में होता है। इस रोग के नियंत्रण हेतु भूमि को फार्मेलिन, केप्टान, थीराम, ब्लि-टाक्स-50 से शोधित करना चाहिए। बीजों को भी जीराम (ziram) क्लोरेनिल, केप्टेन आदि से शोधित करना चाहिए।

ब्राउन लीफ स्पॉट ऑफ राइस :- इस रोग का कारक हेलमिन्थोस्पोरियम आोराइजी (Helminthosporium oryzea) नमक कवक है। इस रोग में पतियों पर गोल भूरे चिह्न होते हैं जिसमें बीच में काला स्पॉट पड़ जाता है। इस रोग के नियंत्रण के लिए बोर्डियेक्स मिक्चर, डाइथेन जेड-78 आदि कवकनाशी का छिड़काव करना चाहिए।

बाजरे का इरगॉट :- इस रोग का कारक क्लेवीसेप्स माइक्रोसेफेला नामक कवक है, बाजरे का स्मट Smut of Bajra , इस रोग का कारक टोलियो स्पोरियमनामक कवक है, अरहर का झुलसा रोग Wilt of Arhar, इस रोग का कारक फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरियम नामक कवक है, गेहूँ का पाउडरी मिल्ड्यू Powdery Mildew of Wheat, इस रोग का कारक इरेसिफ ग्रेमिनिस ट्रिटिसी (Erysiphe graminis tritici) नमक कवक है, राई का इरगॉट रोग Ergot Disease of Rye, इस रोग का कारक क्लेवीसेप्स परपुरिया (Cleviceps purpurea) नामक कवक है, धनिया का स्टेम गाल रोग Stem Gall Disease of Coriander, इस रोग का कारक प्रोटोमाइसीज मेक्रोस्पोरम नामक कवक है।

अजैविक रोग :- इस प्रकार के रोग मुख्यतः पौधों में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों की कमी के कारण उत्पन्न होते हैं। कुछ प्रमुख अजैविक रोग निम्नलिखित हैं- धान का खैरा रोग Khaira Disease of Rice, धान की फसल में होने वाला यह रोग जस्ता (zine) की कमी के कारण होता है, मटर का मार्श रोग Marsh Disease of Pea, मटर में होने वाला यह रोग मैंगनीज (Manganese) नामक पोषक तत्व की कमी के कारण होता है, नींबू का डाइबैक रोग Diback Disease of Citrus, नींबू के पौधों में होने वाला यह अजैविक रोग तांबा (Copper) की कमी के कारण होता है, आम का लिटिल लीफ रोग Little Leaf Disease of Mango
यह अजैविक रोग जस्ता (zinc) की कमी के कारण होता है।

General Science Notes

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