कछवाहा वंश से सबंधित

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कछवाहा वंश से सबंधित

कछवाहा वंश :- कछवाहा वंश राजस्थान के इतिहास में प्रसिद्ध चौहानों की एक शाखा, जो राजस्थानी इतिहास के मंच पर बारहवीं सदी से दिखाई देता है। कछवाहों को प्रारम्भ में मीणा और बड़गुर्जरों का सामना करना पड़ा था। इस वंश के प्रारम्भिक शासकों में दुल्हराय व पृथ्वीराज बडे़ प्रभावशाली थे, जिन्होंने दौसा, रामगढ़, खोह, झोटवाड़ा, गेटोर तथा आमेर को अपने राज्य में सम्मिलित किया था, कछवाहा(कुशवाहा) वंश सूर्यवंशी राजपूतों की एक शाखा है। कुल मिलाकर बासठ वंशों के प्रमाण ग्रन्थों में मिलते हैं। ग्रन्थों के अनुसार दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय,बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है,बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का प्रमाण मिलता है। इन्हीं में से एक क्षत्रिय शाखा कछवाहा (कुशवाहा) निकली। यह उत्तर भारत के बहुत से क्षेत्रों में फ़ैली। “कछवाहा मौर्य वंश की एक शाखा है

भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण

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मुग़लों से सम्बंध :- कछवाहे पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा का सामन्त होने के नाते ‘खानवा के युद्ध’ (1527) में मुग़ल बादशाह बाबर के विरुद्ध लड़े थे। पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद कछवाहों की स्थिति संतोषजनक नहीं थी। गृहकलह तथा अयोग्य शासकों से राज्य निर्बल हो रहा था। 1547 ई. में राजा भारमल ने आमेर की बागडोर अपने हाथ में ली। भारमल ने उदीयमान अकबर की शक्ति का महत्त्व समझा और 1562 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार कर अपनी ज्येष्ठ पुत्री ‘हरकूबाई का विवाह अकबर के साथ कर दिया। अकबर की यह बेगम ‘मरियम-उज्जमानी’ के नाम से विख्यात हुई। भारमल पहला राजपूत था, जिसने मुग़लों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे।

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मानसिंह तथा भगवानदास :- राजा भारमल के पश्चात् कछवाहा शासक मानसिंह अकबर के दरबार का योग्य सेनानायक था। रणथम्भौर के 1569 ई. के आक्रमण के समय मानसिंह और उसके पिता भगवानदास अकबर के साथ थे। मानसिंह को अकबर ने काबुल, बिहार और बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। वह अकबर के नवरत्नों में शामिल था। बादशाह अकबर ने उसे 7000 का मनसब प्रदान किया था। मानसिंह ने आमेर में ‘शिलादेवी मन्दिर’, ‘जगत शिरोमणि मन्दिर’ इत्यादि का निर्माण करवाया था। इसके समय में दादू दयाल ने ‘वाणी’ की रचना की थी।

मिर्ज़ा राजा जयसिंह :- मानसिंह के पश्चात् के शासकों में मिर्ज़ा राजा जयसिंह (1621-1667 ई.) महत्त्वपूर्ण था, जिसने 46 वर्षों तक शासन किया। इस दौरान उसे अन्य मुग़ल बादशाहों जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगज़ेब की सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ था। उसे शाहजहाँ ने ‘मिर्ज़ा राजा’ का खिताब प्रदान किया था। औरंगज़ेब ने मिर्ज़ा राजा जयसिंह को मराठों के विरुद्ध दक्षिण भारत में नियुक्त किया था। जयसिंह ने पुरन्दर में छत्रपति शिवाजी को पराजित कर उसे मुग़लों से संधि के लिए बाध्य किया था। 11 जून, 1665 को शिवाजी और जयसिंह के मध्य इतिहास प्रसिद्ध ‘पुरन्दर की सन्धि’ हुई थी, जिसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर शिवाजी ने मुग़लों की सेवा में उपस्थित होने का वचन दिया था। इस प्रकार ‘पुरन्दर की सन्धि’ जयसिंह की राजनीतिक दूरदर्शिता का एक सफल परिणाम थी। जयसिंह के बनवाये आमेर के महल तथा जयगढ़ और औरंगाबाद में जयसिंहपुरा उसकी वास्तुकला के प्रति रुचि को प्रदर्शित करते हैं। उसके दरबार में हिन्दी का प्रसिद्ध कवि बिहारीमल था |

सवाई जयसिंह द्वितीय :- कछवाहा शासकों में सवाई जयसिंह द्वितीय (1700-1743) का अद्वितीय स्थान है। वह राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, खगोलविद, विद्वान् एवं साहित्यकार तथा कला का पारखी था। वह मालवा का मुग़ल सूबेदार रहा था। जयसिंह ने मुग़ल प्रतिनिधि के रूप में बदनसिंह के सहयोग से जाटों का दमन किया। सवाई जयसिंह ने राजपूताना में अपनी स्थिति मजबूत करने तथा मराठों का मुकाबला करने के उद्देश्य से 17 जुलाई,1734 को ‘हुरड़ा’ (भीलवाड़ा) में राजपूत राजाओं का सम्मेलन आयोजित किया था। इसमें जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, किशनगढ़, नागौर, बीकानेर आदि के शासकों ने भाग लिया था परन्तु इस सम्मेलन का जो परिणाम होना चाहिए था, वह नहीं हुआ, क्योंकि राजस्थान के शासकों के स्वार्थ भिन्न-भिन्न थे। सवाई जयसिंह अपना प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से बूँदी के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप कर स्वयं वहाँ का सर्वेसर्वा बन बैठा, परन्तु बूँदी के बुद्धसिंह की पत्नी अमर कुँवरि ने, जो जयसिंह की बहिन थी, मराठा मल्हारराव होल्कर को अपना राखीबन्द भाई बनाकर और धन का लालच देकर बूँदी आमंत्रित किया, जिससे होल्कर और सिन्धिया ने बूँदी पर आक्रमण कर दिया।
सवाई जयसिंह संस्कृत और फ़ारसी भाषा का विद्वान् होने के साथ गणित और खगोलशास्त्र का असाधारण पण्डित था। उसने 1725 ई. में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनाई और उसका नाम तत्कालीन मुग़ल सम्राट के नाम पर ‘जीजमुहम्मदशाही’ नाम रखा। उसने ‘जयसिंह कारिका’ नामक ज्योतिष ग्रंथ की भी रचना की। सवाई जयसिंह की महान् देन जयपुर है, जिसकी उसने 1727 ई. में स्थापना की थी। जयपुर का वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य था। नगर निर्माण के विचार से यह नगर भारत तथा यूरोप में अपने ढंग का अनूठा है, जिसकी समकालीन और वतर्मानकालीन विदेशी यात्रियों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। जयपुर में जयसिंह ने सुदर्शनगढ़ (नाहरगढ़) क़िले का निर्माण करवाया तथा जयगढ़ क़िले में ‘जयबाण’ नामक तोप बनवाई। उसने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और बनारस में पांच वैधशालाओं (जन्तर-मन्तर) का निर्माण ग्रह-नक्षत्रादि की गति को सही तौर से जानने के लिए करवाया। जयपुर के जन्तर-मन्तर में सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित ‘सूर्य घड़ी’ है, जिसे ‘सम्राट यंत्र’ के नाम से जाना जाता है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी सूर्य घड़ी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। धर्मरक्षक होने के नाते सवाई जयसिंह ने वाजपेय, राजसूय आदि यज्ञों का आयोजन किया था। वह अन्तिम हिन्दू नरेश था, जिसने भारतीय परम्परा के अनुकूल ‘अश्वमेध यज्ञ भी किया। इस प्रकार सवाई जयसिंह अपने शौर्य, बल, कूटनीति और विद्वता के कारण अपने समय का ख्याति प्राप्त व्यक्ति बन गया था, परन्तु वह युग के प्रचलित दोषों से ऊपर न उठ सका।

बिहार में कछवाहा वंश का इतिहास :- महाराजा कुश के वंशजो की एक शाखा अयोध्या से चलकर साकेत आयी और साकेत से, बिहार मे सोन नदी के किनारे रोहिताशगढ़ (बिहार) आकर वहा रोहताशगढ किला बनाया।

मध्यप्रदेश में कछवाहा वंश का इतिहास :- महाराजा कुश के वंशजो की एक शाखा फिर बिहार के रोहताशगढ से चलकर पदमावती (ग्वालियर) मध्यप्रदेश मे आये। कछवाह वंशज के एक राजकुमार तोरुमार नरवर (तोरनमार) पदमावती (ग्वालियर) मध्यप्रदेश मे आये, नरवर (ग्वालियर ) के पास का प्रदेश कच्छप प्रदेश कहलाता था। और वहा आकर कछवाह वंशज के एक राजकुमार तोरुमार ने एक नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर इस क्षेत्र को अपने कब्जे में किया। क्योकि यहा पर कच्छप नामक नागवंशीय क्षत्रियो की शाखा का राज्य था । (महाभारत आदि पर्व श्लोक 71) नागो का राज्य ग्वालियर के आसपास था । इन नागो की राजधानी पद्मावती थी, पदमावती राज्य पर अपना अधिकार करके सिहोनिया गाँव को अपनी सर्वप्रथम राजधानी बनायी थी । यह मध्यप्रदेश मे जिला मुरैना मे पड़ता है, आगे चलकर यह क्षेत्र राजा नल के कारण नरवर क्षेत्र कहलाया। कुशवाह राजाओं में राजा ”नल” सुविख्यात रहा है, जिसकी वीरगाथा ढोला गायन के मार्फत सुनते आये हैं। समाज का अतीत अत्यधिक वैभवशाली रहा है। मध्यप्रदेश के एक राजा नल-दमयंती का पुत्र ढोला जिसे इतिहास में साल्ह्कुमार के नाम से भी जाना जाता है का विवाह राजस्थान के जांगलू राज्य के पूंगल नामक ठिकाने की राजकुमारी मारवणी से हुआ था जो राजस्थान के साहित्य में ढोला-मारू के नाम से प्रख्यात प्रेमगाथाओं के नायक है। इसी ढोला के पुत्र लक्ष्मण का पुत्र बज्रदामा बड़ा प्रतापी व वीर शासक हुआ जिसने ग्वालियर पर अधिकार कर एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इसी क्षेत्र मे कछवाहो के वंशज महाराजा सूर्यसेन ने सन् 750 ई. मे ग्वालियर का किला बनवाया था।
अत: स्पष्ट है कि कछवाहो के पूर्वजो ने आकर कच्छपो से युद्द कर उन्हे हराया और इस क्षेत्र को अपने कब्जे में किया । इसी कारण ये कच्छप, कच्छपघात या कच्छपहा कहलाने लगे और यही शब्द बिगडकर आगे चलकर कछवाह कहलाने लगा । यहां वर्षो तक कुशवाह का शासन रहा।
नरवर (ग्वालियर) राज्य के राजा ईशदेव जी थे और राजा ईशदेव जी के पुत्र सोढदेव के पुत्र, दुल्हराय जी नरवर (ग्वालियर) राज्य के अंतिम राजा थे।

Rajasthan History Notes

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