भारतीय संघ एवं राज्यों का पुनर्गठन

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भारतीय संघ एवं राज्यों का पुनर्गठन

भारतीय संघ एवं राज्यों का पुनर्गठन :-  घटनाओं के संकलन को इतिहास कहते हैं कोई भी घटना यकायक नहीं होती प्याज़ के छिलकों की मानिंद एक-दूसरे पर चढ़ी होती है परत दर परत बस खोलते जाना है नवंबर 1956 में राज्यों का गठन करने के लिए संविधान में हुआ सातवां संशोधन कुछ ऐसी ही परतों का इतिहास है , आज़ादी के बाद 1953 में भाषा के आधार पर बनने वाला राज्य पहला आंध्र प्रदेश था. इससे भी पहले 1936 में उड़ीसा का गठन हुआ था जिसकी नींव 1895 में हुए संबलपुर विद्रोह से जुड़ी थी दरअसल, ब्रिटिश सरकार ने उड़िया भाषी प्रांतों को मध्य प्रांत (आज का मध्य प्रदेश) के साथ जोड़कर उन पर हिंदी को अनिवार्य करने का प्रयास किया था तब लोगों ने इसके विरोध में आवाज़ उठाई थी. इससे भी पहले, और शायद सबसे पहली परत थी, सन 1869 में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का ‘केसरी’ अखबार में छपा लेख जिसका आशय था कि देश का प्रशासनिक ढ़ांचा कुछ ऐतिहासिक घटनाक्रमों और ग़लतियों का नतीजा है तिलक का विचार था कि इसके बजाय भाषा पर आधारित इकाइयां बनाई जाएं, तो देश में एकरूपता के साथ-साथ प्रांतों में रहने वाले लोगों और उनकी भाषा को बढ़ावा मिलेगा | भारतीय संघ एवं राज्यों का पुनर्गठन ,

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क्या राज्यों के गठन के और भी तरीके हो सकते थे :- भौगौलिक, धार्मिक और आर्थिक. लेकिन भौगोलिक आधार पर गठन किसी भी प्रकार अनुकूल नहीं होता और अगर किया भी जाता तो देश में कुल मिलाकर चार या पांच राज्य ही बनते. आर्थिक आधार पर गठन संभव ही नहीं था रह गया धार्मिक तो लार्ड कर्जन ने 20वीं सदी की शुरुआत में जो बंगाल विभाजन किया था वह एक त्रासदी थी जिसे ब्रिटिश सरकार ने बाद में बंगाल का एकीकरण करके ठीक किया. पर अंग्रेजों ने जाते-जाते इसी आधार पर देश का बंटवारा भी कर दिया और इस त्रासदी को ठीक नहीं किया जा सका, इसके उलट महात्मा गांधी मानते थे कि प्रांतीय भाषाएं देश को एक सूत्र में पिरोकर रख सकती हैं शायद इसीलिए या सिर्फ इत्तेफ़ाक है कि धर्म के नाम पर जो हुआ उसे विभाजन कहा गया और भाषा के आधार पर जो हुआ, आज़ादी के बाद राज्यों को बनाने के लिए कांग्रेस ने ‘धर कमीशन’ की स्थापना की जिसने भाषा के बजाए भोगौलिक और आर्थिक आधार पर राज्यों के बनने का प्रस्ताव दिया था जनता ने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया जब पोट्टी श्रीरामुलु की भूख हड़ताल और मौत के बाद उपजे हालात की वजह से 1953 में आंध्र प्रदेश अस्तित्व में आया तब शायद जवाहरलाल नेहरू को महसूस हुआ कि वे भटक गए थे उन्होंने उसी साल ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ की स्थापना की जाने-माने न्यायविद सईद फ़ज़ल अली की अगुवाई में बने इस आयोग में इतिहासकार कावलम माधव पणिक्कर स्वतंत्रता सेनानी ह्रदय नाथ कुंजरू बतौर सदस्य मौजूद थे 18 महीनों की मशक्कत के बाद आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी इसमें भाषा को आधार मानकर राज्यों के गठन का प्रस्ताव दिया गया था लेकिन इस पर आगे बढ़ने से पहले हमें देश का तत्कालीन नक्शा देखना होगा |

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तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य :- उस वक़्त तीन श्रेणी के राज्य थे. पहली श्रेणी में वे नौ राज्य थे जो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार में गवर्नर के अधीन थे और जो अब निर्वाचित गवर्नरों और विधान पालिका द्वारा शाषित थे इनमें असम, बिहार, मध्य प्रदेश (मध्य प्रान्त और बिहार), मद्रास, उड़ीसा, पंजाब और उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बॉम्बे आते थे, दूसरी श्रेणी उन राज्यों की थी जो पहले रियासतदारों के अधीन थे और जिन्हें अब राज प्रमुख और विधान पालिकाएं संभाल रही थीं. इनमें मैसूर, पटियाला, पूर्वी पंजाब, हैदराबाद, राजपूताना के इलाक़े, सौराष्ट्र और त्रावनकोर शामिल थे, तीसरी पंक्ति के राज्य वे थे जो पहले चीफ कमिश्नर या किसी राजा द्वारा शासित थे और अब राष्ट्रपति की अनुशंसा पर बने चीफ कमिश्नरों द्वारा शासित थे. इनमें अजमेर, भोपाल, बिलासपुर, कुर्ग, दिल्ली, हिमाचल, त्रिपुरा, कच्छ, मणिपुर और विन्ध्य प्रदेश थे, और अंत में अंडमान निकोबार के द्वीप थे जो लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा शासित थे.

आयोग का प्रस्ताव :- आयोग ने इन तीनों श्रेणियों को ख़त्म करके नए राज्य बनाने का प्रस्ताव दिया था. तत्कालीन मद्रास प्रान्त से तेलगु, कन्नड़, तमिल और मलयालम भाषाई बहुलता वाले इलाकों को अलग-अलग करके आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मद्रास और केरल को बनाना प्रस्तावित किया गया था. उधर, उत्तर में यानी हिंदी भाषाई इलाकों में राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बनाने का प्रस्ताव दिया गया था, ठीक उसी प्रकार, पूर्व के राज्यों का गठन हुआ. उड़ीसा और जम्मू-कश्मीर में कोई परिवर्तन नहीं किया गया जबकि दिल्ली, मणिपुर और अंडमान निकोबार को केंद्र शासित प्रदेश माना गया , पंजाब और पूर्वी पटियाला के इलाक़ों को मिलकर ‘पेपसु’ बनाया गया. पंजाबी नेता मास्टर तारा सिंह की पंजाबी सूबा बनने की ख्वाहिश पूरी नहीं हुई पंजाब पहले से ही विभाजन के तंदूर पर पक रहा था उस तंदूर में आग कुछ और तेज़ हो गयी इस नक़्शे से आप आयोग का प्रस्ताव समझ जायेंगे, इस नक़्शे को आप आज के भारत के नक़्शे से तकरीबन मिलता जुलता ही पायेंगे पर अगर ध्यान से देखें तो भारत के पश्चिम में नक्शा आज के हालात से बिलकुल अलग है यहां महाराष्ट्र और गुजरात को मिलाकर एक राज्य प्रस्तावित किया गया था जो बॉम्बे कहलाता जबकि इसके पूर्व में नए राज्य का प्रस्ताव दिया गया जो विदर्भ राज्य कहलाता. यानी, विदर्भ में बॉम्बे शहर नहीं था! यही आयोग की सबसे बड़ी दिक्कत थी, पश्चिम में बॉम्बे के गठन पर हुई दिक्क़त ने इस घटना को उस साल की सबसे अहम घटनाओं में से एक बना दिया. हुआ यह था कि बॉम्बे शहर को लेकर दो गुट बॉम्बे सिटिज़न्स कमेटी और संयुक्त महाराष्ट्र परिषद् आमने सामने हो गए थे आइये देखें आयोग ने बॉम्बे को क्या दिया और विदर्भ में क्या मिलाया था |

आयोग का बॉम्बे और विदर्भ :- तत्कालीन बॉम्बे राज्य में से बनासकांठा जिले के आबू रोड, कन्नड़भाषी धारवाड़, बेलगाम, बीजापुर आदि को निकालकर अलग करने की बात कही गई और हैदराबाद के मराठीभाषी ओस्मानाबाद, औरंगाबाद, परभनी, नांदेड के साथ-साथ कुछ और सौराष्ट्र इलाकों को इसमें जोड़ने का प्रस्ताव दिया गया. उधर, विदर्भ में मध्यप्रदेश के मराठी बहुल इलाक़ों जैसे नागपुर, यवतमाल, अमरावती, बुलढाणा, वर्धा, भंडारा आदि का समावेश होना था, बॉम्बे सिटिज़न्स कमेटी और संयुक्त महाराष्ट्र परिषद की भिड़ंत :- बॉम्बे सिटिज़न्स कमेटी व्यापारियों का गुट था जिसमें पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और जेआरडी टाटा जैसे दिग्गज थे. इनकी मांग थी कि बॉम्बे शहर को अलग रखकर एक पूर्ण राज्य के माफिक दर्ज़ा दिया जाए. इसके पीछे उनकी दलील थी कि बॉम्बे में देश भर के लोग रहते हैं यह भी कि यह बहु-भाषाई शहर है जिसमें मराठी बोलने वाले महज़ 43 फीसदी ही हैं. और भी कई बातें कही गईं. जैसे कि बॉम्बे देश की आर्थिक राजधानी है और इसकी भौगोलिक स्थिति बाक़ी महाराष्ट्र से इसे अलग करती है कमेटी की मांग थी कि इसे एक छोटे भारत जैसे मॉडल के रूप में पेश किया जाना चाहिए |

विभिन्न राज्य पुनर्गठन आयोग अधिनियम :- असम सीमा परिवर्तनं अधिनियम, 1951 के द्वारा भारत के राज्य क्षेत्र से एक भाग भूटान को सौंप कर असम की सीमा में परिवर्तन किया गया, आंध्र राज्य अधिनियम 1953 के द्वारा, संविधान के प्रारम्भ के समय विद्यमान मद्रास राज्य से कुछ राज्यक्षेत्र निकालकर, आंध्र प्रदेश नामक नया राज्य बनाया गया, हिमाचल प्रदेश और बिलासपुर (नया राज्य) अधिनियम, 1954 से हिमाचल प्रदेश और बिलासपुर, इन दो भागों का विलय कर एक राज्य अर्थात् हिमाचल प्रदेश बनाया गया, बिहार और पश्चिमी बंगाल अधिनियम, 1956 द्वारा कुछ राज्य क्षेत्र बिहार से पश्चिमी बंगाल की अंतरित किए गए, राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 से भारत के विभिन्न राज्यों की सीमाओं में स्थानीय और भाषाई मांगों को पूरा करने के लिए परिवर्तन किया गया। विद्यमान राज्यों के बीच कुछ राज्यक्षेत्रों को अंतरित किया गया। इसके अतिरिक्त एक नया केरल राज्य बनाया गया और मध्य और विंध्य प्रदेश की रियासतों का उनसे लगे हुए राज्यों में विलय कर दिया गया, राजस्थान और मध्य प्रदेश अधिनियम, 1959 द्वारा राजस्थान राज्य से कुछ राज्यक्षेत्र मध्य प्रदेश की अंतरित किए गए, आंध्र प्रदेश और मद्रास (सीमा परिवर्तन) अधिनियम, 1959 द्वारा आंध्र प्रदेश और मद्रास राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन किए गए, बंबई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 द्वारा बंबई राज्य को विभाजित करके गुजरात नामक एक नया राज्य बनाया गया और बंबई के बचे हुए राज्य की महाराष्ट्र नाम दिया गया, अर्जित राज्यक्षेत्र अधिनियम, 1960 से भारत और पाकिस्तान के बीच 1958-1959 में किए गए समझौते द्वारा अर्जित कुछ राज्यक्षेत्रों का असम, पंजाब और पश्चिमी बंगाल राज्यों में विलय के लिए उपबंध किया गया, नागालैंड राज्य अधिनियम, 1962 के द्वारा नागालैंड राज्य की रचना की गई जिसमें नागा पहाड़ी और त्येनसांग क्षेत्र का राज्यक्षेत्र समाविष्ट किया गया, पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 जिसके द्वारा पंजाब राज्य को पंजाब और हरियाणा राज्यों में और चंडीगढ़ के संघ राज्यक्षेत्रों में बांटा गया।
आंध्र प्रदेश और मैसूर अधिनियम, 1968 (राज्य क्षेत्र अंतरण), बिहार और उत्तर प्रदेश (सीमा परिवर्तन) अधिनियम, 1968, असम पुनर्गठन अधिनियम, 1969 द्वारा असम राज्य के भीतर मेघालय नाम का स्वशासी उपराज्य बनाया गया, हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1970 (1970 का 53) की धारा 4 द्वारा (25-1-1971 से) राज्य का दर्जा दिया गया, पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 द्वारा मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय की राज्यों के प्रवर्ग में सम्मिलित किया गया और मिजोरम तथा अरुणाचल प्रदेश की संघ राज्यक्षेत्र में सम्मिलित किया गया, हरियाणा और उत्तर प्रदेश (सीमा परिवर्तन) अधिनियम, 1979, मिजोरम राज्य अधिनियम, 1986 द्वारा मिजोरम को राज्य का दर्जा दिया गया, अरुणाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1986, गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम,1987, मध्य प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000 द्वारा नया छत्तीसगढ़ राज्य बना, उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000, द्वारा नया उत्तरांचल (वर्तमान उत्तराखण्ड) राज्य बना, बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 द्वारा झारखंड राज्य बना, आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2013 द्वारा तेलंगाना राज्य बना

छोटे राज्य कितने उपयोगी :- देशभर में उठ रहे राज्यों के विभाजनों के मुद्दे को खड़ा करने के पीछे विभिन्न दलों एवं राजनेताओं की महत्वाकांक्षाएं तो सर्वोपरि हैं अपितु देश एवं राज्य में चल रही प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति जनता में द्वेष पैदा करना भी है, देश में पहले भी छोटे राज्यों के गठन के उदाहरण देखने को मिले हैं, किंतु तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर देशभर में जो स्थिति निर्मित हुई है वह निश्चय ही चिंतनीय है। तेलंगाना की मांग ने जो उग्र-रूप धारण किया देश के विभिन्न राज्यों में भी राज्यों के विभाजन की आवाजें उठाई जाने लगीं। तेलंगाना राष्ट्र समिति के आंदोलन के आगे झुकते हुए पृथक् तेलंगाना राज्य के गठन की मांग स्वीकार करने की घोषणा केंद्र सरकार ने 9 दिसंबर, 2009 की यद्यपि की थी, तथापि इस घोषणा के बाद आंध्र प्रदेश में उत्पन्न व्यापक विरोध ने सरकार के इस फैसले के कार्यान्वयन की राज्य विधानसभा पर टाल दिया है। ज्ञातव्य है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति एक लम्बे समय से पृथक् तेलंगाना राज्य के गठन हेतु आंदोलनरत् है। टी.आर.एस. पार्टी के नेता चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन के पश्चात् उनकी नाजुक हालत से निपटने के लिए दबाव के चलते केंद्र सरकार ने पृथक् तेलंगाना राज्य के गठन का फैसला किया। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि सभी राजनीतिक दलों की सहमति के बाद ही तेलंगाना मामले में कोई कदम उठाया जाएगा। सेवानिवृत न्यायाधीश श्री बी.एन. कृष्णा की अध्यक्षता में 3 फरवरी, 2010 को तेलंगाना मुद्दे पर गठित पांच सदस्यीय समिति के कार्य क्षेत्रों की केंद्र सरकार ने 12 फरवरी, 2010 की घोषणा की। समिति पृथक तेलंगाना की मांग के साथ ही अखंड आंध्र प्रदेश की वर्तमान स्थिति बनाए रखने की मांग के संदर्भ में भी विभिन्न परिस्थितियों का अध्ययन करेगी। इसके सदस्यों में राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के कुलपति श्री रणबीर सिंह, अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान के शोधार्थी डा. अबुसलेह शरीफ और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रोफेसर डा. रवींद्र कौर शामिल हैं।

नए राज्यों का निर्माण :- भारत में नए राज्यों के निर्माण की शक्ति संविधान द्वारा भारतीय संसद को प्रदान की गई है (अनुच्छेद-3)। तत्सम्बन्धी संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, केन्द्रीय व्यवस्थापिका अर्थात् संसद सामान्य विधानद्वारा किसी राज्य में से उसका राज्यक्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को अथवा राज्यों के भागों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण के सकती है। संसद राज्यों की सहमति अथवा अनुमति के बिना भी उनके राज्यक्षेत्रों में परिवर्तन हेतु संविधान द्वारा अधिकृत है, संविधान का अनुच्छेद संसद को किसी भी राज्य के क्षेत्र को बढ़ाने अथवा घटाने की, सीमाओं में परिवर्तन करने की अथवा राज्य के नाम में परिवर्तन करने की शक्ति प्रदान करता है। संसद द्वारा यह कार्य साधारण कानून बनाकर किया जा सकता है। अनुच्छेद-3 में उल्लिखित कानून निर्माण सम्बन्धी प्रावधानों के अनुसार, तत्संबंधी विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश पर ही प्रस्तुत किया जाएगा और राष्ट्रपति द्वारा यह विधेयक प्रभावित होने वाले राज्य के विधानमण्डल को निर्दिष्ट किया जाएगा। विधेयक भेजे जाने के साथ ही राष्ट्रपति द्वारा राज्य को अपना मत प्रस्तुत करने के सम्बन्ध में एक अवधि का निर्धारण किया जा सकता है। राज्य द्वारा अभिव्यक्त किए गए मत को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए संसद बाध्य नहीं है। साथ ही संविधान द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि अनुच्छेद-2 और 3 के अधीन निर्मित कोई भी कानून अथवा विधि अनुच्छेद-368 के प्रयोजनार्थ इस संविधान का संशोधन नहीं समझे जाएंगे।

राज्य पुनर्गठन आयोग :- संविधान के द्वारा राज्यों का श्रेणियों में विभाजन तात्कालिक उपयोगिता के आधार पर किया गया था। प्रायः सभी इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं थे। जब केंद्रीय सरकार ने मद्रास राज्य की तेलुगू भाषी जनता के अनुरोध पर 1952 में आंध्र को अलग राज्य बना देने का निर्णय किया तो स्थिति में आकस्मिक परिवर्तन आ गया। 1 अक्टूबर, 1953 में आंध्र प्रदेश राज्य की स्थापना के पश्चात्, भाषा के आधार पर नए राज्यों के पुनर्गठन की मांग भड़क उठी। जब इस समस्या की असंभव हो गया तो इस समस्या के शांतिपूर्ण निदान के लिए 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग की नियुक्ति की गई।

भारत में देशी राज्यों का विलय :- स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारतीय राज्य क्षेत्र दो वर्गों में विभक्त था- ब्रिटिश भारत और देशी रियासतें। ब्रिटिश भारत में 9 प्रांत थे, जबकि देशी रियासतों की संख्या 600 थी, जिनमें 542 रियासतों को छोड़कर शेष पाकिस्तान राज्य में शामिल हो गई। 542 रियासतों में से तीन रियासतों- जूनागढ़, हैदराबाद तथा जम्मू-कश्मीर को भारत में विलय कराने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जूनागढ़ रियासत को जनमत संग्रह के आधार पर तब भारत में मिलाया गया, जब उसका शासक पाकिस्तान चला गया। हैदराबाद की रियासत को सैन्य कार्यवाही करके भारत में सम्मिलित किया गया और जम्मू-कश्मीर रियासत के शासक ने पाकिस्तानी कबायलियों के आक्रमण के कारण विलय-पत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी रियासत की भारत में मिलाया। देशी रियासतों का भारत में विलय तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की दूरदर्शिता और साहसपूर्ण कूटनीतिक प्रयासों के कारण संभव हो पाया।

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