नगरीकरण विकास क्या है वह स्थान नगरपालिका, नगर निगम, छावनी या अनुसूचित नगर क्षेत्र हो नगरीकरण की प्रवृति नरीमन पाइंट, मुम्बई 1901 से 2001 के बीच भारत में नगरीकरण की प्रवृति हैदराबाद सिटी सेंटर मॉल बंजारा हिल्स चारमीनार से हैदराबाद का एक दृश्य औद्योगीकरण नगरीकरण संबं, मुख्य लेख – शहरीकरण और क्षेत्रीय स्वरूप मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं गंदी बस्तियों के कारण ग्रामीण बेरोजगारी सुरक्षा का स्थल है शोषण की प्रवृति गतिशीलता में वृद्धि शिक्षा और जागरूकता का अभाव औद्योगिक क्रांति नगरीय जनसंख्या का दबाव नगरों में आवास समस्या ,
नगरीकरण विकास क्या है
नगरीकरण विकास क्या है
नगरीकरण विकास प्रक्रिया का ही एक अंग है। ग्रामीण क्षेत्रों जनसंख्या का नगरीय क्षेत्रों में परिवर्तन आर्थिक विकास की दृढ़ कसौटी है। पिछड़े हुए स्थिर समाज में नगरीकरण की प्रक्रिया वस्तुत धीमी होती है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए रोज़गार उपलब्ध कराने में नगर सक्षम नहीं होते। किन्तु फिर भी ग्रामीण जनसंख्या का शहरों की तरफ तेजी से पलायन रोज़गार पाने के उद्देश्य से ही होती है और इस स्थिति में यह पलायन तब और तेज हो जाता है जब पूंजी गहन उद्योगों की बजाय श्रम गहन उद्योगों पर बल दिया जाता है। इसके विपरीत नगरीकरण की गति धीमी तब होती है जब कुल जलसंश्या के अनुपात में नगरीय जनसंख्या बहुत ही उच्च स्तर पर पहुंच जाती है। यह स्थिति अभी कुल मिलाकर 30 देशों में आई है, जो विकसित औद्योगिक देश कहलाते हैं, 20वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध भारत के लिए आर्थिक गतिरोध का काल रहा है। फलस्वरूप नगरीकरण की गति बहुत अधिक नहीं रही। 1911 में कुल नगरीय जनसंख्या मात्र 11प्रतिशत थी, जो 1941 में बढ़कर 14 प्रतिशत हो गई। इस प्रकार 30 वर्ष में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि मात्र 3 प्रतिशत रही। 1951 की जनगणना में नगरीय जनसंख्या का कुल जनसंख्या का 17.3 प्रतिशत हो गई। इस वृद्धि का कारण वास्तविक न हो कर संख्यात्मक अधिक था, क्योंकि 1951 की जनगणना में नगर की बड़ी उदार परिभाषा अपनाई गई। 1961 में नगर की परिभाषा पुनः सख्त कर दी गई। अतः 1951-9161 के बीच नगरीय जनसंख्या में मात्र 0.7 प्रतिश की वृद्धि दर्ज की गई। इस प्रकार 1961 में नगरीय जनसंख्या का कुल जनसंख्या का 18 प्रतिशत हो गई। 1971 में अपनाई गई नगरीय क्षेत्र की परिभाषा के अनुसार किसी क्षेत्र को नगर क्षेत्र होने के लिए निम्नलिखित शर्ते पूरी करनी चाहिए –
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वह स्थान नगरपालिका, नगर निगम, छावनी या अनुसूचित नगर क्षेत्र हो
5,000 की न्यूनतम जनसंख्या होनी चाहिए, पुरुष कार्यकारी जनसंख्या का कम से कम 75 प्रतिशत गैर कृषि कार्यों में संलग्न होना चाहिए, जनसंख्या घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति वर्ग किमी. होना चाहिए, 1971 की जनगणना में नगर क्षेत्र की दी गई परिभाषा कुछ दृढ़ अवश्यक है, परन्तु अन्य देशों की तुलना में यह परिभाषा फिर भी काफ़ी अच्छी है। उदाहरणस्वरूप – जापान में 30,000 से अधिक जनसंख्या वाली जगहों को शहर माना जाता है। इसके सापेक्ष भारत की परिभाष लचीली होने के बावजूद देश में नगरीय जनसंख्या कुल जनसंख्या का 23.3 प्रतिशत थी, जो कि 1991 में बढ़कर 25.7 प्रतिशत हो गई, भारत में औद्योगिकीकरण की क्रिया द्वितीय योजना में ही प्रारम्भ हो गई थी परंतु नगरीय जनसंख्या में वृद्धि तृतीय योजना तक कुछ भी विशेष नहीं हुई। यह विदित है कि द्वितीय और तृतीय योजना में भारी औद्योगिकीरण की नींव डाली गई परंतु इससे भारी एवं मूल उद्योगों पर विशेष बल दिया। भारी एवं मूल उद्योग पूंजी गहन होते है। इतः इनकी रोज़गार क्षमता काफ़ी सीमित होती है। यही कारण है कि इनका विकास ग्रामों में उत्पन्न श्रमशक्ति को नगरों में अवशोषित न कर सका, जिससे इसक अर्थव्यवस्था पर सुप्रभाव भी व्यक्त नहीं हुआ। अतः जो औद्योगिकीरण की क्रिया प्रारम्भ की गई थी, उसको गति प्रदान नहीं किया जा सका। परिणामस्वरूप तीव्रता से औद्योगिकरण नहीं हो सका। इसके अलावा 1971 की जनगणना में नगर क्षेत्र की अधिक सख्त परिभाषा करने के कारण जो थोड़ा बहुत नगरीकरण में प्रतिशत वृद्धि हुई थी वह भी दब गयी।
नगरीकरण की प्रवृति
भारत में नगरीकरण जनसंख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। नगरीय जनसंख्या जो 1901 में 2 करोड़ 56 लाख थी, वह 1951 में बढ़कर 6 करोड़ 24 लाख हो गई। इस प्रकार 1901 में 2 करोड़ 56 लाख थी, वह 1951 में बढ़कर 6 करोड़ 24 लाख हो गई। इस प्रकार 1901 से 1951 के बीच नगरीय जनसंख्या में 3 करोड़ 68 लाख की वृद्धि हुई। जबकि 1951 से 1981 के बीच शहरी जनसंख्या में 9 करोड़ 71 लाख की वृद्धि हुई। इसी प्रकार 1981-1991 के बीच नगरीय जनसंख्या में 5 करोड़ 77 लाख की वृद्धि हुई। इससे यह निष्कर्ष आवश्यक निकाला जा सकता है कि औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप नगरीय जनसंख्या में आवश्यक वृद्धि हुई है, भले ही वृद्धि धीमी क्यों न रही हो। 2001 की जनगणना के अनुसार नगरीय जनसंख्या 28 करोड़ 53 लाख थी जो कुल जनसंख्या का 27.8 प्रतिशत है।
नरीमन पाइंट, मुम्बई
भारत में नगरीकरण की अन्य देशों के साथ तुलना विश्व के विकसित देशों से भारत के नगरीकरण की तुलना करने पर पता चलता है कि भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया और स्थिति अन्य देशों की अपेक्षा बहुत पीछे है। 1991 में संयुक्त राज्य अमरीका में नगरीय जनसंख्या का अनुपात कुल जनसंख्या का 76 प्रतिशत, रूस में 74 प्रतिशत, जापान में 77 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया में 35 प्रतिशत तथा इंग्लैण्ड में 90 प्रतिशत था। इसकी तुलना में 1991 में भारत की नगरीय जनसंख्या 25.7 प्रतिशत और 2001 में 27.8 प्रतिशत थी।
1901 से 2001 के बीच भारत में नगरीकरण की प्रवृति
1 लाख से अधिक जनसंख्या वाले प्रथम श्रेणी के नगरों में नगरीय जनसंख्या का अनुपात, जो 1901 में 25.7 प्रतिशत बढ़कर 65.2 प्रतिशत हो गया, इस बात का संकेत करता है कि नगरीय जनसंख्या का प्रवृत्ति बड़े नगरों में संक्रेदित होने की है। द्वितीय और तृतीय श्रेणी के नगरों में नगरीय जनसंख्या का सापेक्ष अनुपात लगभग स्थित रहा अर्थात् 1901 से 2001 के बीच 25-28 प्रतिशत था। परंतु इसकी तुलना में चतुर्थ, पंचम और षष्ठ श्रेणी के नगरों में जनसंख्या के सापेक्ष अनुपात में तीव्र कमी हुई और यह 1901 की तुलना में 47.2 प्रतिशत से कम होकर 1991 में केवल 11.7 प्रतिशत रह गया, प्रशासनिक और सामान्य आर्थिक क्रिया के केंद्र के रूप में प्रथम श्रेणी के नगरों का विकास हुआ। इन्हीं नगरों में उद्योगों, परिवहन, व्यापार और वाणिज्य तथा प्रशासनिक एवं उदार सेवाऐं भी केन्द्रित हैं। जनसंख्या का इस आकार- श्रेणी के नगरों में संकेन्द्रण का यही कारण है। इसके अतिरिक्त द्वितीय श्रेणी की उच्चतम सीमा पर पहुंचे नगर प्रथम श्रेणी में प्रवेश करते जाते हैं। इसके प्रमाण में यही कहा जा सकता है कि 1951 में जहां 74 नगर प्रथम श्रेणी में थे, वहीं 1991 में इनकी संख्या बढ़कर 296 हो गई, जो 1951 के सापेक्ष लगभग तीन गुना है। परिणामस्वरूप जहां 1951 में प्रथम श्रेणी के नगरों में 275 लाख व्यक्ति रहते थे, वहीं 1991 में इनकी संख्या 1388 लाख हो गई अर्थात् इसमें 405 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
हैदराबाद सिटी सेंटर मॉल, बंजारा हिल्स
प्रथम श्रेणी के अलावा अन्य निचले श्रेणी के नगर विशेषकर द्वितीय और तृतीय श्रेणी के नगर, संक्रमण की अवस्था में हैं। इनकी संख्या के साथ-साथ इनमें रहने वाली जनसंख्या में भी वृद्धि हुई है। द्वितीय श्रेणी के नगरों की संख्या जो 1951 में 91 थी, वह 1991 में बढ़कर 341 हो गई और इनमें कुल जनसंख्या 1951 के 61 लाख से बढ़कर 1991 में 233 लाख हो गई अर्थात् इसमें चार गुना वृद्धि हुई। तृतीय श्रेणी के नगरों की संख्या जो 1951 में 330 थीं, 1991 में बढ़कर 927 हो गई। 1951 और 1991 के बीच तृतीय श्रेणी के नगरों की संख्या में 190 प्रतिशत की वृद्धि हुई और यह 97 लाख से बढ़कर 281 लाख हो गई, यदि उच्च श्रेणी के नगरों में जनसंख्या बढती है तो निम्न श्रेणी के नगरों में जनसंख्या का अनुपात घटना एक स्वाभाविक घटना है। अतः भारत में भी चतुर्थ, पंचम और षष्ठ श्रेणी के नगरों में जनसंख्या के घटने की प्रवृत्ति विद्यमान है। चतुर्थ श्रेणी के नगरों की संख्या 1951 में 621 थी जो 1991 में बढ़कर 1,135 हो गई। उन नगरों की कुल जनसंख्या 1951 में 84 लाख थी जो बढ़कर 1991 में 165 लाख हो गई। अतः यह वृद्धि मात्र 96 प्रतिशत रही। पंचम श्रेणी के नगरों की संख्या 1951 में 1,124 थी, जो 1991 में घटकर मात्र 725 रह गई। इन नगरों कुल जनसंख्या जो 80 लाख थी 1991 में 30 प्रतिशत गिकर 55 लाख रह गई। इसी प्रकार 8वीं श्रेणी के नगरों की संख्या 1951 में 578 थी जो 1991 में घटकर मात्र 185 रह गई, जबकि इन नगरों की जनसंख्या 1951 की अपेक्षा 1991 में 19 लाख से गिरकर 6 लाख रह गई, 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर
चारमीनार से हैदराबाद का एक दृश्य
1981 में 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों की संख्या 12 थीं, जो 1991 में बढ़कर 23 और 2001 में 35 हो गई। इन शहरों की जनसंख्या जो 1951 में 421 लाख थी, वह 2001 में बढ़कर 1078 लाख हो गई। उल्लेखनीय है कि इन 35 बड़े शहरों की जनसंख्या कुल नगरीय जनसंख्या का लगभग 33 प्रतिशत है। 2001 की जनगणना के अनुसार – सबसे अधिक जनसंख्या वलाा 33 प्रतिशत है। 2001 की जनगणना के अनुसार सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर वृहत्तर मुंबई है जिसकी जनसंख्या 2001 में 1 करोड़ 20 लाख थी। इसके बाद कोलकाता और दिल्ली का स्थान है जिनकी जनसंख्या 98 लाख तथा 45 लाख है। 1981 से 2001 के बीच इन 35 बड़े शहरों की जनसंख्या में 31.99 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। जनसंख्या में सर्वाधिक वृद्धि दर 67 प्रतिशत हैदराबाद शहर की रही। इसके बाद क्रमशः लखनऊ (63 प्रतिशत), जयपुर (49 प्रतिशत), पुणे (47.4 प्रतिशत) तथा दिल्ली (46.2 प्रतिशत) का स्थान आता है, 2001 की जनगणना में 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले शहरों में जिन नये शहरों ने प्रवेश किया है, वे हैं – मेरठ, नासिक, जबलपुर, जमशेदपुर, आसनसोल, धनबाद, फरीदाबाद, इलाहाबाद, अमृतसर, विजयवाड़ा और राजकोट।
औद्योगीकरण नगरीकरण संबंध
मुख्य लेख : औद्योगीकरण नगरीकरण संबंध, यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमरीका में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नगरों की संख्या में वृद्धि हुई है। मशीनों के अविष्कार के परिणामस्वरूप श्रमिक, शिल्पी और कारीगर बेकार हो गए। इन बेरोज़गार श्रमिकों को नगर क्षेत्रों में रख लिया गया। इस प्रकार बड़े पैमाने पर उत्पादन, मशीनों के प्रयोग और औद्योगिक सभ्यता के विकास के परिणामस्वरूप नगरीकरण का सूत्रपात हुआ। भारत में यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका की तरह नगरीकरण की क्रिया नहीं हुई। भारत में नगरीकरण के निम्नलिखित कारण रहे-
1) चेन्नई का एक दृश्य
2) रेलों का विकास
3) अकाल
4) नगरीय जीवन का आकर्षण
5) उद्योगों का विस्तार
6) नगरों में स्थायी रोज़गार
7) शहरीकरण और क्षेत्रीय स्वरूप
मुख्य लेख – शहरीकरण और क्षेत्रीय स्वरूप
भारत के अलग-अलग राज्यों पर यदि नगरीकरण के क्षेत्र में विकास की दृष्टि से विश्लेषण किया जाय तो यह स्पष्ट है कि विभिन्न राज्यों में नगरीकरण की मात्रा और गति एक जैसी नहीं थी। 1981 और 1991 के बीच जहां उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे आर्थिक दृष्टि से पिछड़े राज्यों नगर नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर थीं, वहीं पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की दर राष्ट्रीय औसत से नीची रही। प्रति व्यक्ति अधिक आय वाले राज्यों में महाराष्ट्र और हरियाणा ऐसे राज्य हैं, जिनमें नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से अधिक थी, 1951 से 1991 की अवधि में बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि दर प्रायः अधिक रही है, परंतु उड़ीसा और बिहार में 1981 से 1991 के बीच नगरीकरण की गति कुछ धीमी पड़ गई थी। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से नीचे थी, लेकिन बाद में इन राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। पुराने औद्योगिक दृष्टि से विकसित राज्यों में 1951-61 के दशक में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि दर ऊंची थी, लेकिन इसके बाद महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य राज्यों में नगरीकरण की प्रक्रिया धीमी रही।
मानव जीवन की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं
भोजन, वस्त्र और आवास ।पौष्टिक भोजन, स्वच्छ वस्त्र तथा साफ-सुथरा आवास मानव की कार्यक्षमता एवं जीवन को सुचारू रूप से सक्रिय रखने के लिए न्यूनतम एवं वांछनीय आवश्यकताएं हैं ।वर्त्तमान युग में मशीनीकरण का युग है ।औधोगिकीकरण के जिनते भी आयाम है, सब मशीन पर निर्भर हैं, लेकिन इन मशीनों की कार्यक्षमता को बनाये रखने अथवा अनुकूल दशाओं के विकास के लिए श्रमिकों का संतुलित एवं पौष्टिक आहार शरीर ढूंढनें को पर्याप्त मात्रा वस्त्र और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने के लिए स्वास्थ्यकर आवास की उपलब्धि नितान्त आवशयक है ।लेकिन औद्योगिकप्रगति के बाद आज श्रमिकों के आवास की व्यवस्था अच्छी नहीं है ।उन्हें गंदी बस्तियों में ही रहना पडत है ।अत: वर्त्तमान युग में गंदी बस्तियों की समस्या बनती जा रही है ।इसी कारण हाउस ने नगर को “जीवन और समस्याओं का विशिष्ट केंद्र” माना है , जहाँ तक भारत जैसे विकासशील देश का प्रश्न है, गंदी बस्ती की समस्या यहां अत्यधिक गंभीर है ।लोगों को बुरी आर्थिक दशा के कारण यह बढ़ती हुई जनसंख्या, उन्नत तकनीकी और धीमी प्रगति से होने वाले औधोगिकीकरण का ही परिणाम है ।भारत में गंदी बस्ती का उदय कब हुआ, इसका निश्चित समय नहीं बतलाया जा सकता है ।लेकिन जैसे-जैसे समय बिताता जा रहा है नई-नई गंदी बस्तीयों का विस्तार हो रहा है ।इस प्रकार गन्दी बस्तियाँ प्राय: सभी बड़े नगरों में विकसित हुई है ।
गंदी बस्तियों के कारण
गंदी बस्तियों का जन्म अचानक ही नहीं हो गया है वरन इसकी पृष्ठभूमि में अनेक मौलिक तत्व हैं जो इनकी वृधि के कारण बने हैं ।यह निम्नलिखित हैं
निर्धनता
निर्धनता अभिशाप है ।निर्धन व्यक्ति के लिएय यह भू-लोक ही नरक है निर्धन, बेरोजगार, दैनिक वेतनभोगी श्रमिक ये सब उस वर्ग के व्यक्ति हैं जो कठोर परिश्रम करने के पश्चात भी दो समय का भोजन अपने परिवार को नहीं दे पातें हैं ।परिणामत: इनके बच्चे कुपोषण का शिकार बन जाते हैं ।बढ़ती महंगाई, कम आमदनी , निर्धन को उच्च पौष्टिक मूल्यों वाले भोज्य पदार्थों को खरीदने के योग्य नहीं छोड़ती है ।अभावों में जीना इनकी मजबूरी है ।
नगरों में आवास समस्या
नगरों में भूमि समिति है और मांग अत्यधिक है ।भूमि का मूल्य भी यहां आकाश छूता है ।सामान्य व्यक्ति भूमि क्रय करके नगर में मकान नहीं बना सकता है ।नगर में किराये के मकान भी समान्य व्यक्ति नहीं ले सकता है ।लाखों श्रमिकों जिसके साधन और आय सीमित हैं उसे विवश होकर गंदी बस्तियों में रहना पड़ता है ।मकान कम है और रहने वाले व्यक्ति कहीं अधिक हैं और परिणामस्वरूप गंदी बस्तियों में निरन्तर वृधि होती जा रही है ।स्थानाभाव के चलते संक्रमण तथा रोग व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं ।छोटे छोटे बच्चे अपने परिवार के साथ तंग जगह में रहते हैं ।परिवार में पड़ी बीमार व्यक्तियों के साथ रहने पर संक्रामक कीटाणु उन्हें भी संक्रमण के जाल में फंसा लेता है ।फलत: डायरिया, मीजल्स आदि के बाद भूख खत्म हो जाती है और शरीर निर्बल होकर कुपोषण की स्थिति में चला जाता है ।
नगरीय जनसंख्या का दबाव
बढ़ती जनसंख्या के साथ जमीन तो बढ़ी नहीं फलस्वरूप रोजगार की खोज में लोग गांव से शहरों की तरफ भाग रहे हैं ।जहां उन्हें राहत के स्थान पर तमाम तकलीफों का सामना करना पड़ता है ।रहने को मकान नहीं, खाने को अच्छा खाना नहीं, शुद्ध पानी नहीं, गंदगी से भरा वातावरण तथा भीड़-भाड़, इन सबके कारण उन स्वाथ्य गिरता जाता है फलत: वे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं, जिसका प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है ।
औद्योगिक क्रांति
गंदी बस्तियों की उत्पत्ती में औद्योगिकक्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका है ।औद्योगिकनगर में जीविका के अनके विकल्प उपस्थित होते हैं ।लाखों की संख्या में ग्रामीण व्यक्ति यहां अधिक से अधिक धन अर्जित करने की कल्पना सजाए आता है परंतु उसे यहां निराशा ही हाथ लगती है ।वह मिल, फैक्टरी, कारखाना या और किसी प्रकार का श्रम करके पटे भरता है ।निर्धनता उनका स्थायी धन है ।इसे औद्योगिकमहानगरीय सभ्यता और संस्कृति में उसे तो गंदी बस्तीयों में रहना पड़ता है ।उसके पास इसके अतिरिक्त विकल्प की क्या है ?
शिक्षा और जागरूकता का अभाव
शिक्षा और जागरूकता के अभाव में गंदी बस्तियों के विकास में वृधि हुई है ।वे व्यक्ति जो निर्धनता के शिकार हैं, वे गंदी बस्तियों की गंदगी से भी अनभिज्ञ हैं ।जहां सुविधाएं नाम को भी नहीं है और बीमारियों और सामाजिक बुराइयां असीमित हिं फिर भी यहां इसलिए आतें हैं क्योंकि उन्हें नाम मात्र का किराया देना पड़ता है ।अशिक्षा के चलते भोजन के पौष्टिक तत्वों के संरक्षण की विधि से लोग वाकिफ नहीं हैं ।भोजन को तल कर खाने में उन्हें, इस बात का अंदाजा नहीं लगता है कि वे अपने ही हाथों से, जो कुछ उन्हें मिल सकता था, उसे भी नहीं ले रहें हैं ।भोजन में पकाया पानी या माड़ आदि निकालकर, न जाने कितने पोषक तत्व वे स्वयं नष्ट कर देते हैं ।शिक्षा और जागरूकता के अभाव में वे अपने ही हाथों से अपनी ही क्या, अपनी अगली पीढ़ी की भी हानि कर रहें हैं ।
गतिशीलता में वृद्धि
पहले व्यक्ति को अपनी जमीन और घर की ड्योढ़ी से अत्यधिक लगाव था ।वह किसी भी दशा में अपना गांव, क़स्बा छोड़ना नहीं चाहता था, किन्तु औद्योगिकक्रांति और आवगामन की सुविधाओं ने व्यक्ति को नगरों में काम खोजने और नौकरी करने के लिए उत्प्रेरित किया ।नित्य लाखों की संख्या में व्यक्ति एक गांव से एक नगर, एक नगर से दुसरे नगर और नगर से महानगर में काम की तलाश में जाता है ।इतने व्यक्तियों के रहने के स्थान कोई भी नगर, अबालक कैसे बना सकता है ।अस्तु वे गंदी बस्तियों के शरण में जाते हैं ।इस तरह गंदी बस्तियों का विकास निरन्तर होते जा रहा है ।
शोषण की प्रवृति
उत्पादन का महत्वपूर्ण अंग श्रमिक, मलिन बस्तियों में रहता है और मालिक वातानुकूलित बंगलों में ।पूंजीवादी व्यवस्था की यह बुनियादी नीति है कि आप आदमी की रोजी-रोटी की परेशानियों में फसायें रखें ।भूखा व्यक्ति अपने परिवार के पेट भरने की चिंता पहले करता है और कुछ बाद में ।उसे जीने की इतनी सुविधाएं नहीं देते जिससे की वह दहाड़ने लगे और बाजू समेटकर अपने अधिकारों की मांग करने लगे ।इसलिए उसे अभाव में जीने दो जिससे कि वह सदैव मालिकों का दास बनकर रहें ।उसकी स्थायी नियत शोषण करना है , श्रमिकों को सुविधायें पहुंचना नहीं ।अंततःनिर्धन शोषित श्रमिक रहने के लिए मलिन बस्तियों की शरण में ही जाता है ।
सुरक्षा का स्थल है
गाँव छोड़कर ग्रामीण इसलिए भी नगर आ रहा है क्योंकि वहां सुरक्षा नाम की कोई चीज नहीं है ।चोरी और डकैती सामान्य बात है ।डकैतों का बढ़ता हुआ आतंक ग्रामीणों को गाँव छोड़ने के लिए मजबूर करता है ।नगर में प्रशासक, पुलिस की व्यवस्था है जो उनके जान-माल की रक्षा करती है ।इसलिए नगर की जनसंख्या में निरन्तर वृधि हो रही है और इसी के साथ गंदी बस्तियों में भी वृधि हो रही है ।
ग्रामीण बेरोजगारी
भारतीय निर्धन गांव जहाँ वर्ष में कुछ ही महीने व्यक्ति को काम मिलता है और शेष माह वह बेरोजगारी के अभिशाप को भोगता है ।ग्रामीण क्षेत्र में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं है कि व्यक्ति को खाली समय में काम मिल सके ।इसलिए खेती के समय जो ग्रामीण व्यक्ति गाँव में उपलब्ध रहता है उसके पश्च
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