गुर्जर प्रतिहार वंश

गुर्जर प्रतिहार वंश

गुर्जर प्रतिहार वंश :- प्रतिहार वंश को गुर्जर प्रतिहार वंश (छठी शताब्दी से 1036 ई.) इसलिए कहा गया, क्योंकि ये गुर्जरों की ही एक शाखा थे, जिनकी उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई थी। प्रतिहारों के अभिलेखों में उन्हें श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का वंशज बताया गया है, जो श्रीराम के लिए प्रतिहार (द्वारपाल) का कार्य करता था। कन्नड़ कवि ‘पम्प’ ने महिपाल को ‘गुर्जर राजा’ कहा है। ‘स्मिथ’ ह्वेनसांग के वर्णन के आधार पर उनका मूल स्थान आबू पर्वत के उत्तर-पश्चिम में स्थित भीनमल को मानते हैं। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार उनका मूल स्थान अवन्ति था।

गुर्जर-प्रतिहार वंश की उत्पत्ति :- विभिन्न राजपूत वंशों की उत्पत्ति के समान गुर्जर-प्रतिहारवंश की उत्पत्ति भी विवादग्रस्त है । राजपूतों की उत्पत्ति के विदेशी मत के समर्थन में विद्वानों ने उसे ‘खजर’ नामक जाति की संतान कहा है जो हूणों के साथ भारत में आई थी । इस मत का समर्थन सबसे पहले कैम्पबेल तथा जैक्सन ने किया और बाद में भण्डारकर तथा त्रिपाठी आदि भारतीय विद्वानों ने भी इसे पुष्ट कर दिया, किन्तु यह मत कोरी कल्पना पर आधारित है क्योंकि विदेशी आक्रमणकारियों में खजर नामक किसी भी जाति के विषय में हमें भारतीय अथवा विदेशी साक्ष्य से कोई भी सूचना नहीं मिलती । खजर तथा गूजर या गुर्जर में शब्दों के अतिरिक्त कोई भी साम्य नहीं लगता, सी. वी. वैद्य, जी. एस. ओझा, दशरथ शर्मा जैसे अनेक विद्वान् गुर्जर प्रतिहारों को भारतीय मानते है । वे इस शब्द का अर्थ ‘गुर्जरदेश का प्रतिहार अर्थात शासक’ लगाते है । के. एम. मुंशी ने विभिन्न उदाहरणों से यह सिद्ध किया है कि गुर्जर शब्द स्थानवाचक है, जातिवाचक नहीं । ‘गुर्जर’ शब्द का उल्लेख पाँचवीं-छठीं शती से मिलने लगता है, इन विद्वानों का विचार है कि यदि गुर्जर जाति विदेशों से आकर भारतीय क्षत्रिय समाज में समाहित होती तो उसका पुराना नामोनिशान बिल्कुल समाप्त नहीं होता । भारत के शास्त्रकारों ने विदेशियों को सदा पद प्रदान किया है । हूणों को म्लेच्छ कहा गया है । किन्तु जहाँ तक गुर्जरों का प्रश्न है उन्हें सर्वत्र ब्राह्मण कहा गया, हुएनसांग गुर्जरनरेश को क्षत्रिय बताता है । पृथ्वीराजरासो में अग्निकुल के राजपूतों की जो कथा मिलती है उसकी ऐतिहासिकता संदिग्ध है दशरथ शर्मा, ओझा आदि ने बनाया है कि इस कथा का उल्लेख रासो की प्राचीन पाण्डुलिपियों में अप्राप्य है । इस प्रकार खजर जाति से गुर्जरों की उत्पत्ति सिद्ध नहीं होती है, साहित्य अथवा इतिहास में कहीं भी उन्हें विदेशियों से नहीं जोड़ा गया है । उनके लेखों से जो संकेत मिलते हैं उनके आधार पर हम उन्हें ब्राह्मण मूल का स्वीकार कर सकते हैं जिन्होंने कालान्तर में क्षात्र-धर्म ग्रहण कर लिया था । तैत्तिरीय ब्राह्मण में प्रतिहारी नामक वैदिक याजकों का उल्लेख मिलता है, लगता है उन्होंने ही बाद में अपने कमी को छोडकर क्षत्रियों की वृत्ति अपना ली तथा अपने को राम के भाई लक्ष्मण से सम्बद्ध कर लिया । गुर्जर-प्रतिहारों ने आठवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक शासन किया । ग्वालियर अभिलेख में इस वंश के शासक राम के भाई लक्ष्मण, जो उनके प्रतिहार (द्वारपाल) थे, का वंशज होने का दावा करते है , कुछ विद्वानों के अनुसार इस वंश का आदि शासक राष्ट्रकूट राजाओं के यहाँ प्रतिहार के पद पर काम करता था, अतः इन्हें प्रतिहार कहा गया । गुर्जर-प्रतिहारों का मूल स्थान निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है । स्मिथ, हुएनसांग के आधार पर उनका आदि स्थान आबू पर्वत के उत्तर-पश्चिम में स्थित भीममल मानते है । कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार उनका मूल निवास-स्थान उज्जयिनी (अवन्ति) में था ।

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गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासक :-
1.) नागभट्ट प्रथम (730 – 756 ई.)
2.) वत्सराज (783 – 795 ई.)
3.) नागभट्ट द्वितीय (795 – 833 ई.)
4.) मिहिरभोज (भोज प्रथम) (836 – 889 ई.)
5.) महेन्द्र पाल (890 – 910 ई.)
6.) महिपाल (914 – 944 ई.)
7.) भोज द्वितीय
8.) विनायकपाल
9.) महेन्द्रपाल द्वितीय
10.) देवपाल (940 – 955 ई.)
11.) महिपाल द्वितीय
12.) विजयपाल
13.) राज्यपाल
14.) यशपाल

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