जीवाणु जनित पादप रोग

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जीवाणु जनित पादप रोग

जीवाणु जनित रोग (Bacterial diseases) :- जीवाणु (बैक्टीरिया) – बैक्टीरिया जिन्हें हम हिंदी में जीवाणु कहते है, छोटे-छोटे एककोशिकीय जीव हैं, जो पूरी पृथ्वी पर हर जगह पाए जाते है। वे जीव जिन्हें मनुष्य नंगी आंखों से नही देख सकता तथा जिन्हें देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र की आवश्यकता पड़ता है, उन्हें सूक्ष्मजीव (माइक्रोऑर्गैनिज्म) कहते हैं। सूक्ष्मजीवों का संसार अत्यन्त विविधता से बह्रा हुआ है। सूक्ष्मजीवों के अन्तर्गत सभी जीवाणु (बैक्टीरिया) और आर्किया तथा लगभग सभी प्रोटोजोआ के अलावा कुछ कवक (फंगी), शैवाल (एल्गी), और चक्रधर (रॉटिफर) आदि जीव आते हैं, सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते हैं। यह मृदा, जल, वायु, हमारे शरीर के अंदर तथा अन्य प्रकार के प्राणियों तथा पादपों में पाए जाते हैं। जहाँ किसी प्रकार जीवन संभव नहीं है जैसे गीज़र के भीतर गहराई तक, (तापीय चिमनी) जहाँ ताप 100 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा हुआ रहता है, मृदा में गहराई तक, बर्फ की पर्तों के कई मीटर नीचे तथा उच्च अम्लीय पर्यावरण जैसे स्थानों पर भी पाए जाते हैं।

जीवाणु जनित रोग – गलघोंटू रोग :- यह रोग अधिकत्तर बरसात के मौसम में गाय व भैंसों में फैलता है। यह घूंतदार रोग है। भैंसों में अधिक होता है। इस रोग के मुख्य लक्षण पशु को तेज़ बुखार होना, गले में सूजन, सासं लेना तथा सासं लेते समय तेज़ आवाज़ होना आदि है। पशु के उपचार के लिए एन्टीबायोटिक व एन्टीबैकटीरियल टीके लगाए जाते है अन्यथा पशु की मृत्यु हो जाती है। इस रोग की रोकथम के लिए रोग- निरोधक टीके जिसका पहला टीका तीन माह की आयु में दूसरा टीका व माह में तथा फिर हर साल टीका लगवाना चाहिए। यह टीका निशुल्क विभाग द्वारा लगाए जाते हैं।

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लंगड़ा बुखार (ब्लैक कवाटर) :- यह रोग गाय व भैंसों में होता है। परन्तु गोपशुओं में अधिक होता है। पशु के पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है। जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है। तथा सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज़ आती है। पशु का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ ज़हर शरीर में पूरी तरह फ़ैल जाने से पशु की मृत्यु हो जाती है। इस बीमारी में प्रोकेन पेनिसिलीन काफी प्रभावशाली है। इस बीमारी के रोग निरोधक टीके निःशुल्क लगाए जाते है।

बाह्म व अंतः परजीवी – पशुओं के शरीर पर जुएँ, चिचड़ी तथा पिस्सुओं का प्रकोप :- पशुओं में जुएँ, पिस्सु व चिचड़ पशुओं की चमड़ी से खून चूसते हैं। तथा पशुओं में खून की कमी आने से कमजोर हो जाते है। तथा उत्पादन कम हो जाता है। अन्य बीमारियां भी हो जाने का खतरा रहता है। चिचड़ियाँ टीका-फीनर का संक्रमण भी कर देती है। इनसे बचाव हेतु तुरन्त दवाइयों का इस्तेमाल पशु चिकित्साक की सलाह से करना चाहिए।

पशुओं में अतः परजीवी प्रकोप :- अतः परजीवी पशु के पेट, आंतों, लीवर आदि में रहकर उसके खून व खुराक पर निर्वाह करते हैं। जिससे पशु कमजोर हो जाता है तथा अन्य बीमारियाँ भी प्रभावीं होती है। उत्पादन क्षमता कम हो जाती है। पशु के गोबर के नमूनों की जांच करवानी चाहिए और उचित दवा देने से परजीवी नष्ट हो जाते है।

मिल्क फीवर (Milk Fever) दुधारू पशुओं में होने वाला एक प्रमुख रोग :- यह मेटाबोलिक बीमारी है हालांकि इसका नाम मिल्क फीवर है। परन्तु इसमें जानवर के शरीर का तापक्रम बढने के ब्याज कम हो जाता है। मासपेशियों में कमजोरी श्वास लेने में कठिनाई, जानवर अपना होश गवा देता है। अगर समय पर इलाज नहीं किया जाता है तो जानवर की मृत्यु हो जाती है। यह रोग जादा दूध देने वाले जानवरों में बहुतापल होता है। क्योंकि अधिक दूध उत्पादन हेतु शरीर को ज्यादा कैल्शियम बन्द कर देता है। और व्याने के आखिरी महीनों में होता है। तो उसका राशन (Concentrate) कम कर देते है या बन्द कर देते हैं। जिससे जानवर के शरीर में कैलशियम की कमी आ जाती है।जानवर सुस्त हो जाता है अपनी गर्दन पेट की तरफ घुमा लेता है। और बैठ जाता है। खड़ा होने में असमर्थ हो जाता है। बचाव:- दुधारू पशुओं को राशन में कैलशियम व फास्फोरस चूंक मिनेरल मिक्चर मिलाकर देना चाहिए। व्याने के 10-15 दिनों तक जानवर का सम्पूर्ण दूध नही दुहना चाहिए। कुछ दूध को लेना में ( Udder) रहने देना चाहिए। उपचार: इंजेक्शन कैल्शियम बोरोग्लूकोनेट 400 से 800 (1000 ml) मि॰ली॰ आधा नाड़ी में (1 / v) तथा आधा चमड़ी के ( s / c) नीचे देना चाहिए। तथा पहले बोतल को शरीर तापमान तक कर लेना चाहिए।

थनैला (Mastifis) / मेस्टइटिस :- थनैला में दूध वाले पशुओं को लेवे (Udduer)में जीवाणुओं जैसे स्ट्रेपटीकीक्स /- स्तेफलोकोक्स या कोलिफोरम के कारण सोज्स आ जाती है तथा लेषा सख्त हो जाता दूध में विकार पैदा हो जाता है।

बचाव :- दूध निकालने से पहले व बाद में थनों को किसी एंटीसेप्टिक सोलुशन से धोना चाहिए और दूध निकालने के समय लेवे को साफ़ और सूखा रखना चाहिए।
(2)दूध की सही प्रकार निकालना चाहिए जल्दबाजी नी करनी चाहिए।
(3) दूध के बर्तनों की साफ़ सुथरा रखना चाहिए। और रोड़ में सफाई रखनी चाहिए।
(4) पशु को मिनरल मिक्चर जिसमें कैल्शियम, वीतामिन-ई, ए, ज़ीक इत्यादि ही देना चाहिए। रोग होने पर सही उपचार करवाना चाहिए।

मृदु गलन ( Soft rots ) :– इस तरह के लक्षण मांसल ( fleshy ) फलों पर प्रकट होते हैं । विकरोन ( enzymes ) की परस्पर क्रिया से कोशिकाओं का विघटन ( disintegration ) होता है तथा मध्य भित्ति विलगित ( dissolution ) हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप ऊतकों में मृदु गलन के लक्षण प्रकट होते है । उदाहरण – आलू का मृदु गलन रोग ( soft rot of potato ) रोगकारक – इरविनिया केरोटोवोरा ( Erwinia carotovora ) |

जीवाणुओं द्वारा जनित रोग लक्षण ( Disease symptoms caused by bacteria ) :- पादपों में रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं में स्यूडोमोनास ( Pseudomonas ) , जेन्थोमोनास ( Xanthomonas ) , एसिडोवोरेक्स ( Acidovorax ) , एग्रोबैक्टिरियम ( Agrobacterium ) , क्लैवीबैक्टर ( Clavibacter ) , स्ट्रैप्टोमाइसिज ( Streptomyces ) , इरविनिया ( Ervinia ) आदि मुख्य हैं जो विभिन्न रोगों में अनेक लक्षण उत्पन्न करते हैं । कवकों की अपेक्षा बैक्टीरिया अक्यूटिनीकृत ( non – cutinized ) स्थलों से प्राकतिक रूप से खुले भागों जैसे स्टोमेटा से अथवा अन्य सूक्ष्मजीवों द्वारा किए गए घावों आदि से पादपों में प्रवेश कर अंतःकोशिकीय ( intercellularly ) , अन्तराकोशिकीय ( intracellularly ) , अंतरासंवहनीय ( intravascularly ) रूप से स्वयं को स्थापित कर लेते हैं तथा निम्न लक्षण प्रकट करते हैं-

स्थानीय क्षय ( Local lesions ) :– जीवाणुवीय क्षय या स्थानाकृत धब्बे पर्ण सतह ( leaf blades पर्णवृन्त ( petiole ) ,स्तम्भ ( stem ) तथा अन्य पादप भागों पर देखे जा सकते हैं । फलों पर इस तरह के धब्बे फलों में रंगहीनता ( discolouration ) उत्पन्न करते है । पर्ण पर धब्बे जल युक्त धब्बों के रूप में उत्पन्न होकर वृत्ताकार , ( circular ) , अनियमित या कोणीय धब्बो ( angular spots ) की तरह बढ़ते हैं । स्टोमेटा से प्रवेश करने वाले जीवाणु उपरंध्रीय ( sub – stomatal ) स्थान में स्थापित होकर मृदूत्तकीय ऊतकों में ऊतकक्षय ( necrosis ) उत्पन्न करते हैं । उदाहरण – सेब क दग्ध , अंगमारी ( fire blight of apples and pears ) , कॉटन का कोणीय पर्ण धब्बा ( angular leaf spot of cotton ) |

म्लानि ( Wilt ) :– कुछ जीवाण्वीय रोगों में जीवाणु संवहनी ऊतकों में प्रवेश कर स्थाई हो जाता है और कुछ में संवहनीय ऊतकों में संक्रमण की आवृत्ति अधिक होती है जिसके परिणामस्वरूप पादपों में प्रारूपिक म्लानि ( typical will ) के लक्षण उत्पन्न होते हैं । संवहनीय संक्रमण के परिणामस्वरूप रूद्धवर्धन ( hypoplasia ) होता है जो अन्ततः पूरे पादप को बौना बना देता है । उदाहरण – कुकुरबिट जीवाण्वीय म्लानि ( cucurbit bacterial wilt ) , आलू में भूरा गलन ( brown rot of potato ) , आलू का वलय गलन ( ring rot of potato ) , टमाटर का जीवाण्वीय म्लानि ( bacterial wilt of tomato ) आदि, संवहनीय रोगों का मुख्य कारण संवहन ऊतकों में जल की गति में जीवाणुओं की गतिविधियों के कारण अवरोध है ।

ग्रंथियाँ एवं पिटिकाएँ ( Tumours and galls ) :– अनेक जीवाण्वीय रोगों में जीवाणुओं के सक्रमण के कारण प्रभावित ऊतकों में अतिवर्धन ( hyperplasia ) तथा अतिवृद्धि ( hypertrophy ) के लक्षण उत्पन्न होते हैं जिनके परिणामस्वरूप प्रभावित अंगों में ग्रंथियां ( tumours ) बन जाती हैं । रोगकारक श्रृंखला बद्ध रूप से सतत् रासायनिक क्रियाएं करता है तथा अपने आवास स्थलों में विशेष रसायन उत्पन्न करता । जो पोषी कोशिकाओं में अतिवर्धन‌ ( hyperplasia ) तथा अतिवृद्धि ( hypertrophy ) उत्पन्न करते हैं।  उदाहरण – एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमिफेसिएन्स ( Agrobacterium tumifaciens ) द्वारा उत्पन्न रोग क्राउन गॉल ( crown gall ) |

स्कैब एवं कैंकर ( Scab and cankers ) :– स्कैब तथा कैंकर कॉर्की ( corky ) अतिवृद्धियाँ ( outgrowths ) हैं जो पादप के ऊपरी भू भागों जैसे पर्ण , शाखा , फल आदि पर प्रकट होती हैं । ये अतिवृद्धियां पोषी कोशिकाओं व रोगकारक की परस्पर क्रियाओं के परिणामस्वरूप बनती है । ये क्रियाएँ अधिकाशत: स्थानीकृत होती है तथ परपोषी के मृदोतकीय ( parenchyma ) में स्थानीकृत होता है उदाहरण – नींबू का कैंकर रोग ( citrus canker ) , रोगकारक जैन्थोमोनास सिट्राई ( Xanthomonas citrii ) आदि ।

General Science Notes

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