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भारत के राजनीतिक दलों की सूची
भारतीय लोकतांत्रिक दल :-
राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी एक राजस्थान का पंजीकृत क्षेत्रीय राजनीतिक दल है जिसकी स्थापना राजस्थान के नागौर संसदीय क्षेत्र के वर्तमान सदस्य हनुमान बेनीवाल ने 29 अक्टूबर 2018 को की।
यह दल देश का 59वाँ और राजस्थान का पहला पंजीकृत क्षेत्रीय दल है जिसे हाल ही के लोकसभा चुनाव के बाद निर्धारित अहर्ताएं पूर्ण करने के कारण भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा मान्यता दी गयी।
वर्तमान में इस दल से राजस्थान राज्य विधानसभा में 3 विधायक और भारतीय निम्न सदन (लोकसभा) में एक सदस्य है। पूर्व में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव में इस दल से तीन सदस्य निर्वाचित हुए जिनमे से खींवसर से निर्वाचित सदस्य हनुमान बेनीवाल गत लोकसभा चुनाव में नागौर संसदीय क्षेत्र से सांसद निर्वाचित होने के कारण खींवसर विधानसभा क्षेत्र अभी रिक्त है। भारत के राजनीतिक दलों की सूची ,
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इतिहास :-
भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं जैसे की वसुंधरा राजे तथा राजेंद्र राठौड़, पर विवादित बयान देने के कारण हनुमान बेनीवाल को भारतीय जनता पार्टी से पहेले निलंबित व फिर निष्कासित कर दिया | महारानी महाविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये|
श्री बेनीवाल राजस्थान की राजनीती में मजबूत माने जाने वाली जाट जाति से आते हैं :-
श्री बेनीवाल राजस्थान की राजनीती में मजबूत माने जाने वाली जाट जाति से आते हैं |
29अक्तूबर 2018 को जयपुर में एक रैली ( हुंकार रैली ) में उन्होंने एक नई पार्टी की घोषणा की |
राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी ने राजस्थान विधानसभा चुनाव 2018 में कुल 57 सीटों पर चुनाव लड़ा तथा 3 सीटों पर अपनी जीत सुनिश्चित की |
भोपालगढ़ (अनुसुचित जाति ) – पुखराज गर्ग (पहली बार चुनाव लड़े )
मेड़ता ( अनुसूचित जाती ) – इंदिरा देवी ( पहली बार चुनाव लड़ीं )
खींवसर – नारायण बेनीवाल (पहली बार चुनाव लड़े )
दल-बदलू’ हमें कोई मीठे हास-परिहास में कह दे, तो इतना बुरा नहीं लगता है. समाज और परिवार में दोस्त, सखियां, पति-पत्नी और परिजन तक बातों-बातों में दल-बदलू होते रहते हैं. लेकिन राजनीति में किसी का ‘दल-बदलू’ होना बुरा लगता है दल-बदल करने वालों को भी दल-बदलू कहलाना अच्छा नहीं लगता होगा. और आज राजनेता तो क्या, बेचारे बुद्धिजीवियों, कलाकारों और पत्रकारों तक पर दल-बदलू होने की तोहमत लग रही है |
आज की युवा पीढ़ी गोवा :-
आज की युवा पीढ़ी गोवा, अरुणाचल और कर्नाटक जैसे राज्यों में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी द्वारा दल-बदल को हवा देकर सरकार बनाने के अनैतिक प्रयासों पर बेचैन होती है इससे एक भरोसा जगता है कि वे राजनीति में नीति की शुचिता के महत्व को जान-समझ रहे हैं. लेकिन दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में किसी विपक्षी पार्टी का मुख्यमंत्री जब क्रॉस-वोटिंग कराने में बाजी मार ले जाता है, तो उसकी वाहवाही करनेवाले मीम्स बनने लगते हैं. उसे जीते हुए खिलाड़ी के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगता है
इसलिए अचानक से यह भरोसा टूटने लगता है कि हमारी युवा पीढ़ी राजनीति में नीति की शुचिता के प्रति वास्तव में सतर्क है पता चलता है कि क्षणिक नैतिकता के लबादे में तो वह एक तरह का अवसरवाद था. इसमें अपनी-अपनी दलगत निष्ठा के आधार पर नैतिकता के अर्थ और मायने को तुरंत बदल दिया जाता है भारत की राजनीति में दल-बदल के इतिहास को खंगालने की जरूरत भी इसीलिए हुई, ताकि जनता से लेकर नेता तक के इस ढुलमुलेपन को ठीक से समझा जा सके |
शुरुआत करते हैं उस देश की परंपरा से जहां से भारत ने दलवादी संसदीय व्यवस्था उधार में ली प्रसिद्ध ब्रिटिश राजनेता विंस्टन चर्चिल (1874-1965) ने अपने संसदीय जीवन की शुरुआत कंज़र्वेटिव पार्टी से की थी और सन् 1900 में वे इसी पार्टी के टिकट पर सांसद बने. लेकिन चार साल के भीतर ही उनका अपनी सरकार से मोहभंग हुआ तो वे अपनी पार्टी छोड़कर लेबर पार्टी में शामिल हो गए. लेकिन चर्चिल ने संसद में घोषणा की कि वे अपने इस दल-बदल के बारे में अपने संसदीय-क्षेत्र के निर्वाचकों से परामर्श करना चाहेंगे और यदि निर्वाचक कहेंगे कि उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ना चाहिए तो वे इस बात के लिए तैयार होंगे
संसद के बाहर व्यक्तिगत रूप से पार्टी बदलने से अलग, ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में किसी खास मुद्दे पर सांसदों द्वारा दल-परिवर्तन की परंपरा को एक प्रकार की मान्यता हासिल है. इसे ‘फ्लोर क्रॉसिंग’ कहा जाता है क्योंकि किसी खास मुद्दे पर ध्रुवीकरण की स्थिति में सदस्य अपने स्थान से उठकर ‘फ्लोर’ पार कर दूसरे खेमे में आकर बैठ जाते थे. इसी तरह की परंपरा अलग-अलग नामों से अलग-अलग देशों में प्रचलित हुई, जैसे- कार्पेट क्रॉसिंग (दरी-बदल) , टर्न-कोटिज़्म (कोट-बदल), वाका-जंपिंग और ‘म्यूज़िकल चेयर्स’ की राजनीति. ‘डिफेक्शन’ शब्द तो वास्तव में सैन्य शब्दावली से आया जिसका प्रयोग किसी सैनिक के सेना छोड़कर भाग जाने या दूसरे पक्ष में जा मिलने के लिए किया जाता है |
लेकिन इसमें अनैतिकता का सवाल जुड़ने पर इसे अवसरवादिता की राजनीति भी कहा गया इसी का दूसरा पहलू इसे नैतिक ठहराने की कोशिश भी करता है जैसे ‘अंतरात्मा की आवाज़’ पर सदन में मतदान करने-कराने वाली राजनीति इसके लिए अंग्रेजी में ‘कॉन्साइंस वोट’ शब्द भी प्रचलित है इसके लिए पार्टी व्हिप (दल के सचेतक द्वारा जारी लिखित आदेश) का उल्लंघन करना होता है |
यह सब तो संसद या विधान सभा के भीतर मुद्दा-विशेष के आधार पर और पारदर्शी तरीके से दल-बदलने की प्रक्रिया है अब कौन से राजनेता और विधायक इस तरह से दल-बदलते हैं! अब तो पंच-सितारा होटलों और रेस्तराओं में पार्टियां बदली जाती हैं विधायक बंधकों की तरह प्राइवेट विमानों और बसों में ढोकर एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाए जाते हैं राज्यपाल से लेकर स्पीकर तक इसमें खलनायक की भूमिका में आ जाते हैं. माना जाता है कि विधायकों की मनमानी बोलियां लगती हैं सबसे अधिक सीटें लानेवाली पार्टी मुंह ताकती रह जाती है और कम सीटें लानेवाली पार्टी विधायकों को येन-केन-प्रकारेण बटोरकर सरकार बना ले जाती है. लेकिन एक कटु सच्चाई यह है कि ये कोई आज की बात नहीं है |
भारत में दल-बदल की शुरुआत :-
भारत में दल-बदल की शुरुआत उस घटना से ही मान सकते हैं जब मोतीलाल नेहरू के भतीजे शामलाल नेहरू ने 1920 के दशक में ही केंद्रीय विधानसभा के लिए कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीता लेकिन बाद में ब्रिटिश पक्ष में शामिल हो गए कांग्रेस विधायक दल के नेता मोतीलाल नेहरू ने इस कृत्य के लिए उन्हें कांग्रेस से निकाल बाहर किया था. इसी तरह 1937 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को पूर्ण बहुमत मिला, लेकन फिर भी उन्होंने मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों को दल-बदलकर कांग्रेस में शामिल होने का प्रलोभन दिया इनमें से एक हाफ़िज मुहम्मद इब्राहिम को मंत्री भी बनाया हाफ़िज जी को छोड़कर किसी भी अन्य सदस्य ने अपनी विधायकी से त्यागपत्र देकर फिर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं समझी |
आज़ादी के तुरंत बाद 1948 में जब कांग्रेस समाजवादी दल ने कांग्रेस संगठन छोड़ने का फैसला किया तो इसने अपने सभी विधायकों (केवल उत्तर प्रदेश में ही 50 के आस-पास) से कहा कि वे इस्तीफा देकर फिर से चुनाव लड़ें इस्तीफा देनेवालों में आचार्य नरेंद्र देव जैसे दिग्गज नेता भी थे इन्होंने एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया था लेकिन बाद में खासकर कांग्रेस पार्टी ने ऐसे आदर्शों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया.
भारत के पहले आम चुनावों के बाद 1952 में तत्कालीन मद्रास राज्य में किसी भी पार्टी को बहुमत प्राप्त नहीं हुआ कांग्रेस को 152 और बाकी पार्टियों को कुल मिलाकर 223 सीटें मिली थीं टी. प्रकाशम् के नेतृत्व में चुनाव बाद गठबंधन कर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और भारतीय साम्यवादी दल के विधायकों ने सरकार बनाने का दावा किया, लेकिन राज्यपाल ने सेवानिवृत्ति का जीवन बिता रहे भारत के पूर्व गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर दिया जो उस समय विधान सभा के सदस्य तक नहीं थे इसके बाद हुई जोड़-तोड़ में 16 विधायक विपक्षी खेमे से कांग्रेस में आ मिले और राजाजी की सरकार बन गई एक साल बाद इन्हीं टी प्रकाशम् को आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का प्रलोभन देकर कांग्रेस ने पार्टी में शामिल होने का प्रस्ताव दिया प्रकाशम् अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री बन भी गए |
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